शनिवार, अक्तूबर 24, 2009

मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन

पर पश्चिमी जगत में सबसे गौरवपूर्ण कही जाने वाली इस प्राचीन सभ्यता का मूल्यांकन?   साम्राज्य युग ही इसके जीवन का वैभव काल रहा। उत्तरी और दक्षिणी प्रदेशों को संयुक्त करके जो अनेक राजवंश आए उसी की विरूदावली गायी जाती है। इन राजवंशों के साम्राज्य एक 'दैवी व्यवस्था' घोषित किए गए, जिसके शीर्ष स्थान पर देवता सूर्यदेव 'रे' का प्रतिनिधि उनका राजा 'फराउन' या 'फैरो' (Pharaoh)  था। इस कारण वह स्वयं देवता था। मृत्यु के बाद वह देवताओं में शामिल हो जाता था और उसकी पूजा पिरामिड अथवा समाधि के सामने मंदिर में होती थी। इसी से बना 'पेर-ओ' (फैरो) अर्थात 'अच्छे देवता'। वे राज्य के सर्वेसर्वा थे, सभी देवताओं के अधिकृत पुजारी और प्रवक्ता। मिस्री बहुदेववाद में फैरो हर देवता की सभी जगह पूजा नहीं कर सकता था, इसलिए वह अपना कार्यभार सहायक पुजारियों को सौंपता था। वे मंदिरों और फैरो के संपत्ति की देखभाल करते थे और युद्घ के समय सेना का संचालन। इन मंदिरों में देवदासियाँ थीं और चाकरी के लिए गुलाम। ये पुजारी कृषि, व्यापार, उद्योग, सभी पर नियंत्रण रखते, उपज का अनुमान लगाकर कर-निर्धारण करते। शासनकर्ता और पुजारी एक ही थे।

फैरो का सूचक चित्र

कल्पना करें कि कैसा सामाजिक जीवन इस निरंकुश राजतंत्र में रहा होगा जहाँ फैरो ही राज्य था। जिनकी भाषा में 'राज्य' के लिए कोई अलग शब्द न था, क्योंकि वह मानव संस्था थी ही नहीं, वह दैव-प्रदत्त थी। स्पष्ट है कि पुजारी, सामंत (अर्थात पुजारी के अतिरिक्त अधिकारी) और सैनिक बड़े प्रभावशाली थे; सुखोपभोग के अधिकारी थे। दूसरा साधारण नागरिक वर्ग था। ये थे किसान, जो खेती करते और पशु पालते अथवा व्यापारी, पर सबसे बड़ा वर्ग गुलामों का था। सभी सामी सभ्यताओं और साम्राज्यों की भाँति मिस्त्र में भी मानवता का कलंक दास प्रथा थी। अर्थात युद्घ में बनाए गए बंदी, अथवा जो ऋण अथवा कर अदा न कर सके। किसान पर करों का भार लदा रहता और डर सताता था कि यदि कर न दे सके तो फैरो के पास ले जाए जाएँगे, जहाँ गुलाम बनाकर बेगार में जोता जाएगा। व्यवहारत: राजकर्मचारी और सामान्य वर्ग के रहन-सहन में जमीन-आसमान का अंतर था।

सोचें, कैसे फैरो के मृत शरीर को लेपन के बाद सुरक्षित रखने के लिए पिरामिड बने। इन्हें देखकर सुमित्रानंदन पंत की ताजमहल पर पंक्तियाँ हठात् याद आती हैं-
    हाय मृत्यु का कैसा अमर अपार्थिव पूजन,
    जबकि विषण्ण निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन।
    स्फटिक सौध में हो श्रंगार मरण का शोभन,
    नग्न क्षुधातुर वास-विहीन रहे जीवित जन।
    मानव, ऎसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति,
    आत्मा का अपमान, प्रेत और छाया से रति।




 हिरोडोटस अर्धप्रतिमा

यवन इतिहासकार हिरोडोटस (Herodotus) का कहना है कि गीजा (Giza) के विशाल पिरामिड को १ लाख व्यक्तियों ने २० साल में बनाया था। यह १४६ मीटर ऊँचा, २३० मीटर लंबा और १३ एकड़ भूमि पर खड़ा हो। नेपोलियन ने कहा था कि इन महान पिरामिडों में लगे पत्थरों से यदि एक १० फीट ऊँची और १ फुट चौड़ी दीवार बनायी जाए तो वह पूरे फ्रांस को घेर लेगी। कैसे ये ढाई-ढाई टन के २३ लाख प्रस्तरखंड एक के ऊपर एक चढ़ाए गए होंगे ! कैसे तराशे गए होंगे कि उनके बीच सुई या बाल डालने की भी गुंजाइश नहीं है ! और कितने दास इसमें काम आए ! यह सब विचार कर मन सिहर उठता है। यह कैसी सभ्यता ?

इसी प्रकार इनकी समाधियाँ (मस्तबा)। इन पूर्वजों की समाधियों पर उनके मनोरंजन के लिए ऎसे चित्र उकेरे गए हैं जिन्हें हम अश्लील कहेंगे। इन मस्तबा या पिरामिडों में भोजन, पेय, सुखोपभोग की सामग्री, प्रिय वस्तुओं और कभी-कभी शौचालय की भी व्यवस्था रहती थी। विश्वास था कि हर व्यक्ति का प्रतिरूप 'का' रहता है जो मृत्यु के बाद भी उसे छोड़ता नहीं और जिसे इन सब वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है। वैसे 'का' के अतिरिक्त 'आत्मा' को भी वे मानते थे। नौका से पार कर सागर के उस पार पाताल में दुष्ट आत्माएँ चली जाती हैं। पर सदात्माएँ उसके दूसरे कोने में सुखोपभोग करती हैं। एक सीधा-सादा परलोकवाद, जिसमें दार्शनिक उड़ानों का स्थान न था

प्राचीन मिस्त्र बड़ा 'धार्मिक' (रिलीजियस) कहा जाता है। वह अंधविश्वासों से घिरा था। शायद उनका पंथ साधारण किसान और व्यापारी को संतुष्ट रखने के लिए और फैरो को देवता का प्रतिनिधि बनाने में था। यही नमूना संपूर्ण सामी सभ्यताओं में 'पादशाही' के रूप में प्रकट हुआ, जिसमें साधारण जनता का शासन में सहभागी होने का मार्ग न था। उनका पंथ अथवा मजहब संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ गुणों-समता, मानव-मूल्यों का आदर और सभी का शासनतंत्र में किसी प्रकार सहभागी होना- से दूर था। राज्य सिमटकर फैरो में केंद्रित हो गया और फैरो ही राज्य का पर्याय बना।

मिस्र के कौटुंबिक जीवन का एक पहलू भाई-बहन का आपर में अंतर्विवाह है। संभवतः रक्त-शुद्घता का विकृत अर्थ ले, फैरो अथवा अनुवंशीय पदों पर आसीन लोगों का 'रक्त' मिश्रित न हो, इस भावना से यह रीति चली। स्पष्ट ही भिन्न वर्गों के कर्म में तो अंतर था ही, पर उनके बीच घोर विषमताएँ थीं। जैसे एकरस जीवन की कल्पना भारत में थी, वह वहाँ कभी नहीं आई। इसी से जीवशास्त्रीय और सामाजिक दुष्परिणामों को दुर्लक्ष्य कर यह विकृत परंपरा वहाँ आई।

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प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ
१७- मिस्र सभ्यता का मूल्यांकन

रविवार, अक्तूबर 18, 2009

भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ

कभी इतिहास में भूमध्य सागर के दोनों ओर के देश ही यूरोप की दुनिया थी। इसी से कहा 'भूमध्य सागर'। यूरोपीय विद्वान प्रारम्भ में यही सभ्यताएँ जानते थे और इन्हें प्राचीनतम मानव सभ्यता समझते थे। इनमें भी सबसे प्राचीन है मिस्र की सभ्यता (Egypt, संस्कृत : 'अजपति')।


मिस्र, नील नदी का वरदान है। नदी का प्राचीन संस्कृत नाम आज तक चला आता है। वहाँ के जीवन में दो देवताओं की मानो होड़ थी। एक 'नील (Nile) नदी', जिसकी देन मिस्र का जीवन है। दूसरे सूर्यदेव 'रे' (रवि) । नील नदी में वर्ष में सदा उसी तारीख को बाढ़ आती है। इससे ३६५ दिन का (तीस दिन के बारह मास और ५ अतिरिक्त दिवस) उनका वर्ष बना। नील की क्षीण धारा तब  प्रबल हो उठती है। बाढ़ के साथ अन्नदायिनी नई मिट्टी सारी घाटी में फैलने लगती है और अक्तूबर के अंत तक सारी घाटी डूब जाती है। फिर एकाएक पानी उतरना प्रारम्भ होता है और तब निकल आते हैं उर्वर खेत। यह चिलचिलाती धूप व शुष्क गर्मी के कारण नील नदी और उसके साथ वनस्पति तथा हरियाली की मृत्यु और पुनर्जीवन की कहानी वर्षानुवर्ष दुहरायी जाती है। सूर्य का प्रतिदिन उदय एवं अस्त भी मानो उसके पुनर्जीवन की कथा है। यह प्रकृति की, उनके दोनों देवताओं की नियमितता, उनकी प्राचीन सभ्यता के आशावादी दर्शन का आधार तथा प्रतीक बनी।

आज प्राचीन मिस्री सभ्यता के अध्ययन के लिए उनके द्वारा निर्मित विशाल पिरामिड (pyramid), उनके मंदिर, भित्तिचित्र एवं मूर्तियां, उनकी चित्राक्षर लिपि में लिखे गए लेख और उनके अभिलेखागार हैं।

प्राचीन मिस्री सभ्यता का तिथि क्रम पाँच भागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम प्राग्वंशीय युग, जो लगभग विक्रम संवत् पूर्व ३४०० के पहले था। उस समय मिस्र में दो भिन्न सभ्यताएँ पनप रही थीं। प्रथम मिस्र में अवस्थित नील की घाटी में, जो लगभग १५ से ३० किलोमीटर चौड़ी उत्तर से दक्षिण एक पट्टी है और दूसरी उसके मुहानों की भूमि पर। भिन्न होने के बाद भी दोनों ने नील नदी की बाढ़ प्रारम्भ होने की प्रति वर्ष का ३६५ दिन बाद आने वाला क्रम स्व-अनुभव से जाना था। जब यह गणना प्रारम्भ की गयी अर्थात वर्ष के प्रथम वर्ष के प्रथम दिन 'लुब्धक तारे', (Sirius : Alpha Canis Majoris) का उदय सूर्योदय के साथ हुआ था। पर नक्षत्र वर्ष लगभग १/४ दिन अधिक का होने के कारण यह घटना १४६० वर्ष के पश्चात पुन: वर्ष के प्रथम दिन आएगी। इसे 'सोथिक चक्र' (Sothic cycle)  कहते हैं। इसलिए किस मास के दिन यह घटना हुयी, जानने पर सोथिक चक्र से वह कौन सा वर्ष था, जान सकते हैं। मिस्त्री जीवन में ऎसी तिथियों के विशेष उल्लेख से काल या संवत् पूर्व का अनुमान कर सकते हैं।

किंवदंती के अनुसार मिस्र के अति प्राचीन जीवन में नील की घाटी में बसने वाली जाति दक्षिण से और उनके देवता दक्षिण और पूर्व स्थित 'देवभूमि' से आए। संभवतः ये अफ्रीका के उत्तरी-पूर्वी तट के निवासी होंगे, जिन्हें ये सजातीय समझते थे। नील के मुहाने में दो जातियाँ- पश्चिम में लीबिया वासी और पूर्व में अरब से आई सामी जाति के लोग बसते थे। दक्षिणी मिस्र के प्राचीन लोगों ने मुहाने में बसे लोगों को शत्रु जाति और सामी बताया है। पर इनके अतिरिक्त एक तीसरी जाति भी थी जो इंजीयन सागर (भूमध्य सागर के पूर्वी भाग) के असंख्य द्वीपों में भी फैली थी। धीरे-धीरे संघीय युग में वह मिस्र के दक्षिणी भाग में फैल गयी। प्राग्वंशीय युग की सभ्यता के बारे में बहुत कुछ अज्ञात है। लगभग ३४०० विक्रम संवत् पूर्व के आसपास एक संयुक्त राज्य की स्थापना हुयी और इसके साथ राजवंशीय युग में पदार्पण हुआ।


राजवंशीय युम में ३० वंशों के राजाओं का साम्राज्य और शासन था। तीसरे से छठे वंश के काल को पिरामिड युग भी कहते हैं, जब पिरामिड बने और आई मेंफिस की नरसिंह की मूर्ति (Sphinx)। इसके अंत के करीब सत्ताईसवें से तीसवें वंश के शासन में आया ईरान का आधिपत्य तथा विद्रोह की घटनाएँ। विक्रम संवत् पूर्व २७४-२७० में सिकंदर (अलक्षेंद्र : Alexander) का आक्रमण और उसके बाद यूनान का राज्य। और अंत में विक्रम संवत् की प्रथम शताब्दी के प्रारम्भ में ही मिस्र रोम का एक प्रांत बनकर रह गया। यवनों ने उसका इतिहास लिखवाने का, लिपि पढ़ने का और उनकी सभ्यता को समझने का यत्न किया। पर रोम का प्रांत बनने पर रोमन साम्राज्य के ईसाईकरण के अत्याचारों से उसकी पाँच सहस्र वर्ष पुरानी सभ्यता का अंत हो गया। जो कुछ बचा उसे अरब में इस्लाम की शक्ति बढ़ने पर इस्लामी वाहिनियों के अत्याचारों की आंधी ने ध्वस्त कर नील की घाटी और मुहाने के रहे-सहे पुराने अवशेषों को भी जला कर नष्ट कर दिया। आज मिस्र स्वतंत्र है। उसके ये विशाल पिरामिड तथा मूर्तियां आज तक खड़ी हैं। पर उसका प्राचीन से नाता टूट गया और उस पुरानी सभ्यता की पहचान सदा के लिए मिट गयी। अत्याचारों की जोर-जबरदस्ती से लादे गए जीवन से उबरने की आशा भी न रही। आज इस्लामी रूढ़िवाद और कट्टरपन के आतंक से मुक्ति कहाँ?

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प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग
१६ - भूमध्य सागरीय सभ्यताएँ

रविवार, अक्तूबर 11, 2009

भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग




कारगिल से पर्वतमाला


भारत से उत्तर-पश्चिम की ओर जाने का व्यापारिक भू-मार्ग सदा से रहा है। एक मार्ग 'करगिल' (कश्मीर) [कारगिल] होकर था। करगिल का शाब्दिक अर्थ है, जहाँ करों की 'गिला' (शिकायत) अथवा अपवंचना हो, अथवा जो कर-मुक्त स्थान (पत्तन: Free port) हो।  ये मार्ग उत्तर में बल्ख-बुखारा, समरकंद और ताशकंद आदि को जाते थे। यहाँ से दो मार्ग थे। एक उत्तर को चीन एवं मंगोलिया की ओर तो दूसरा पश्चिम-मध्य एशिया के देशों की ओर मुड़ जाता था। ये सभी दुर्गम मार्ग भारतीय व्यापारियों ने निकाले। सर्वश्रेष्ठ धातु की वस्तुएँ, रेशम के वस्त्र, चंदन, मूर्तियाँ तथा अन्य कला-कौशल का सामान, मसाले और औषधियाँ सभी एशिया, यूरोप के देशों में भारत से जाते थे और बदले में स्वर्ण एवं चाँदी आती थी। भारतीयों ने इन मार्गों में अपने उपनिवेश बना रखे थे। जहाँ कहीं भारतीय गए वहाँ के लोगों को शील दिया, धर्म दिया, श्रेष्ठ (आर्य) बनने की ज्योति उनके मन में जलाई। उन्हें शिक्षा दी, अपना ज्ञान-विज्ञान दिया और कलाएँ, सहकारिता और सहयोग के पाठ सिखाए। जीवमात्र एवं प्रकृति से प्रेम और बड़ों के आदर के गुण उन्हें दिए तथा चरित्र की शिक्षा दी। सबसे बढ़कर मानवता का अभिमान और स्वशासन उन्हें दिया। कहीं किसी को गुलाम नहीं बनाया, न किसी की श्रद्घा पर आघात किया, न उनके पवित्र स्थान भ्रष्ट किए, न पूजा-स्थल तोड़े।


  करगिल (कारगिल) की ज़ंसकार तहसील में, फुगतल बौद्ध मन्दिर


आगे चलकर बौद्घ प्रचारकों ने भी व्यापार के मार्ग अपनाकर मध्य एशिया में और दूर चीन-मंगोलिया में बुद्घ के संदेश की दुंदुभि बजाई। दृढ़व्रती और साहसी बौद्घ भिक्षुओं ने व्यापारिक मार्गों पर सब जगह बौद्घ विहार स्थापित किए। मध्य एशिया के साथ ईरान और सुदूर पश्चिम में भूमध्य सागर के तट तक बौद्घ भिक्षु गए। यही ईसा मसीह की अहिंसा की प्रेरणा बने।

पर सामी सभ्यता और उनके साम्राज्यों की चमक-दमक ईरान के जीवन को बदल रही थी। उनमें साम्राज्यवादी लिप्सा उत्पन्न हुयी और एक दूसरी वृत्ति के शिकार बने। मुस्लिम आक्रमण के बाद तो ईरान में सब बदल गया। उसने शिया पंथ अपनाया। आज का कट्टरपंथी आतंकवादी जीवन बना उस देश का। भारत में उस इसलामी आक्रमण के शिकार बने और अपनी पवित्र अग्नि बचाकर आए पारसी। अपनी मूल संस्कृति तथा इस विभीषिका की स्मृति, जिसके कारण ईरान छोड़ना पड़ा, आज वे भूलते हैं। भारत में उनके नाम मुसलमानों से मिलते-जुलते होने के कारण वस्तुत: उन्हें मुसलमान ही समझने लगे। आज वे उस हिंदु संस्कृति को जिसका आश्रय उन्होंने घोर विपत्ति में ग्रहण किया, तथा उस माता के उपकारों को भूल गए। दोनों संस्कृतियों का प्रेरणा-केन्द्र एक था, इसका भी विस्मरण। क्या कभी ईरान में प्राचीन आर्य संस्कृति की स्मृति, उसके प्रति आस्था जगेगी?


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प्राचीन सभ्यताएँ और साम्राज्य

०१ - सभ्यताएँ और साम्राज्य
०२ - सभ्यता का आदि देश
०३ - सारस्वती नदी व प्राचीनतम सभ्यता
०४ - सारस्वत सभ्यता
०५ - सारस्वत सभ्यता का अवसान
०६ - सुमेर
०७ - सुमेर व भारत
०८ - अक्कादी
०९ - बैबिलोनिया
१० - कस्सी व मितन्नी आर्य
११ - असुर जाति
१२ -  आर्यान (ईरान)
१३ - ईरान और अलक्षेन्द्र (सिकन्दर)
१४ - अलक्षेन्द्र और भारत
१५ - भारत से उत्तर-पश्चिम के व्यापारिक मार्ग