गुरुवार, जनवरी 31, 2008

रिलिजन के लिये हिन्दी में उपयुक्त शब्द - संप्रदाय या पंथ

कृषि के लिए ऋतुओं का ज्ञान आवश्‍यक था। प्रथम काल-गणना तो दिन एवं चंद्रमास द्वारा प्रारंभ हुई। आज भी अरब देशों में चंद्रमास से वर्ष गिनने के कारण मुसलमानी त्‍योहार कभी जाड़े में आते हैं तो कभी गरमी में। ईसा के क्रूसारोपण (crucifixion) और पुनर्जीवन (resurrection) के दिन ग्रेगरी पंचांग (Gregorian calendar) के अनुसार एक तिथि को नहीं पड़ते। बीज कब बोया जाय,यह सौर वर्ष पर आधारित है। दसियों सहस्‍त्राब्दियों से मानव ने तारों के उदय-अस्‍त पर ध्‍यान दिया। नक्षत्रों (तारा समूहों) को देखकर उनके स्‍वरूप की कल्‍पनाऍं उसके मन में उठीं। नक्षत्र ऋतु में निश्चित समय पर उदय होते हैं। इससे सौर वर्ष की कल्‍पना आई। भारतीय पंचांग चंद्रमास और सौर वर्ष के बीच संगति बैठाने का तरीका है।

पंचांग संभवतया सबसे प्राचीन विज्ञान है। यहॉं अनेक कल्‍पनाओं की कलई चढ़ने के बावजूद प्राकृतिक नियमों ने मानव को तर्कशुद्ध चिंतन के लिए बाध्‍य किया। पर मानव का मन फलित ज्‍योतिष की भूलभुलैया में भटकता रहा है। काल-गति ऐसी विचित्र है‍ कि उसका अंतिम दार्शनिक या वैज्ञानिक विश्‍लेषण आज भी संभव नहीं। अनजाने भविष्‍य को पढ़ने के आकर्षण ने मानव कमजोरियों का उपयोग कर अंधविश्‍वासों को भी जन्‍म दिया।

मनुष्‍य समाज के रूप में रह सके, यह जीवन-दर्शन ‘धर्म’ कहलाया। प्राकृतिक तथ्‍यों और घटनाओं में मानव भाव आरोपित कर जहॉं प्रकृति पर प्रभुत्‍व की ओर उसने पग उठाया वहॉं आपसी व्‍यवहार के विधि निषेध ‘धर्म’ ने अपनाए। इन विचारों ने पूजा-वस्‍तुओं, टोटका, मंत्र-तंत्र और अंधविश्‍वासों के साथ एक व्‍यावहारिक ताना-बाना तैयार किया। इसे भारतीय परिभाषा में ‘पंथ’ या ‘संप्रदाय’ कहते हैं। ‘धर्म’ वह है जिसके द्वारा समाज की धारणा हो। अंग्रेजी का ‘रिलिजन’ (religion) शब्‍द लैटिन के ‘रेलिगेयर’ (religare) से बना है, जिसका अर्थ है ‘बॉंधना’। अंग्रेजी के इस शब्‍द के लिए हिंदी में ‘संप्रदाय’ या ‘पंथ’ अधिक उपयुक्‍त है। ‘रिलीजन’ से अर्थ उन विश्‍वासों, रीति-रिवाजों से है जो संप्रदाय या पंथ के अनुयायियों को एक साथ रखते हैं, भावना के एक सूत्र में बॉधते हैं। इसका मूल लक्षण एक प्रकार की उपासना-पद्धति है। पर धर्म वे मूलभूत विचार तथा विश्‍वास हैं जिनके बिना सभ्‍य समाज संभव न था। एक पंथ संबंधी है तो दूसरा सार्विक। यह बुनियादी अंतर न समझने और पंथ के दुराग्रह के कारण अनेक झगड़े हुए हैं और इसमें ‘हिंदु धर्म’ के प्रति हुई गलतफहमियों या जानबूझकर फैलाई गई भ्रांतियों का उत्‍स है।

फ्रायड ने धर्म के मनोभावों का एक नास्तिक (atheistic) अथवा अज्ञेयवादी (agnostic) निरूपण अपने ग्रंथ ‘एक माया का भविष्‍य’ (Future of an Illusion) में किया है। पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि पंथ और संप्रदाय ने मानव को सभ्‍य बनाने का कार्य किया। इन्‍होंने संसार का कुछ सीमा तक मानवीकरण किया और सभ्‍यता का एक विस्‍तृत ढॉंचा खड़ा किया। पर पंथ या संप्रदाय का आग्रह और स्‍वार्थ कभी-कभी मानव प्रगति में बेड़ी बनकर आया, झगड़े उत्‍पन्‍न किए और स्‍वतंत्र विचारों की राह में विभीषिका बनकर खड़ा हुआ। यह सभी सामी पंथों के लिए सत्‍य है।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
०१- समय का पैमाना
०२- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
०३- सभ्‍यता का दोहरा कार्य
०४- पाषाण युग
०५- उत्‍तर- पाषाण युग
०६- जल प्‍लावन
०७- धातु युग
०८- राजा उदयन की राजधानी - कौशांबी
०९- पुराने कबीले मातृप्रधान थे
१०- जादू, टोने टुटके से - विज्ञान के पथ पर
११- रिलिजन के लिये हिन्दी में उपयुक्त शब्द - संप्रदाय या पंथ

शनिवार, जनवरी 26, 2008

जादू, टोने टुटके से - विज्ञान के पथ पर

प्रारंभ में आदि मानव ने संसार को वैसे ही देखा होगा जैसे शिशु अपने मकान के छोटे से संसार को देखता है। ‘यह है’, इतना ही भाव उसके लिए पर्याप्‍त है। धीरे-धीरे वह मस्तिष्‍क दौड़ाने लगा। अन्‍वेषण का भाव उत्‍पन्‍न हुआ। उसके साथ जागी आश्‍चर्यजनक तथा अबोध्‍य लगने वाले कार्य-कलापों के प्रति जिज्ञासा। कठोपनिषद में नचिकेता का प्रसंग है, जिसने अपने पिता के विचारों को चुनौती दी। अंत में जब तक यम ने उसे जीवन और मृत्‍यु का रहस्‍य नहीं बताया तब तक वहॉं से हटने से इनकार किया। यह वैचारिक साहस और मानव की अमर जिज्ञासा का प्रतीक है। इस जिज्ञासा के कारण दर्शन और विज्ञान संभव हो पाया।

कार्य-कारण भाव मन में आना स्‍वाभाविक है। ‘तुम ऐसा करते हो तो यह हो जाता है’, यह संबंध एक सीमा तक पशुओं के मस्तिष्‍क में भी रहता है; और धीरे-धीरे उनकी अंत:प्रवृत्ति में बदल जाता है। आदि मानव बहुत व्‍यवस्थित और विवेकपूर्ण ढंग से सोचने का आदी न होगा। इसलिए कई बातों में असंगति थी। कुछ बातें प्रत्‍यक्ष अनुभव से सिद्ध हो जातीं—यदि विषैला फल खाओगे तो मर जाओगे। पर आदि मानव के लिए अनेक अहम समस्‍याऍं थीं, जिनके हल की खोज में गलत कारण मन में आए, पर जो इतने गलत न थे कि उनकी गलती पकड़ में आ सके। इसने अंधविश्‍वासों को जन्‍म दिया। कुछ अंधविश्‍वासों को मानव आज तक भुगत रहा है। इसलिए कौन सा आश्‍चर्य है कि हजारों प्रकार के जादू-टोना, झाड़-फूँक, मंत्र-तंत्र, शकुन-अपशकुन और तावीजों आदि में उसका विश्‍वास बढ़ा। आज भी वनवासी एवं अशिक्षित लोगों में इस प्रकार के अंधविश्‍वास पलते हैं और शिक्षितों में उनकी छाया।

बालक के समान आदि मानव के स्‍वप्‍न और कल्‍पना-चित्र अधिक सजीव तथा विशद थे और भीति तीव्र थी। वह पशुओं में और यहॉं तक कि जड़ वस्‍तुओंमें भी अपनी तरह के मनोभाव आरोपित करता। ऊफनती नदी और उठती ऑंधी को वह किसी के क्रोध के लक्षण समझता। कबीले के प्रधान की मृत्‍यु के बाद भी उसके सजीव स्‍वप्‍न आदि मानव को विश्‍वास दिलाते होंगे कि वह (मुखिया) मरा नहीं बल्कि किसी परोक्ष काल्‍पनिक जगत में विचरण कर रहा है। उसके हृदय में प्रधान के प्रति आदर तथा भय नया हो जाता। शायद पूर्व प्रस्‍तर युग में इसी से कहीं-कहीं शव को दफनाते समय व्‍यक्ति के हथियार और हड्डी आदि के अलंकार साथ दफना दिए जाते थे। इनको देखकर भारतीय सामाजिक जीवन (एवं शवदाह) और चिंतन की अलौकिकता को समझा जा सकता है।

आदि मानव के लिए बीमारी और मृत्‍यु अपना भयंकर रहस्‍य छिपाए खड़ी थी। कभी महामारी लंबे डग भरती हुई सारे प्रदेश में महानाश उपस्थित करती। उसका भयग्रस्‍त भावुक हृदय आतंक में कभी इधर कारण खोजता और कभी उधर दोष देता। गाढ़े में सहायता के लिए कभी इस वस्‍तु या प्राणी की, कभी उसकी शरण में भटकता। प्रकृति की क्रूरता को उसने मृदु बनाने का यत्‍न किया। अपनी तरह के मनोभाव इन विपत्तियों तथा जड़ वस्‍तुओं पर आरोपित कर उनको तुष्‍ट कर अनुकूल बनाने का प्रयास किया। इसी से वस्‍तु-पूजा, उनके समक्ष जीव-बलि प्रारंभ हुई। इस प्रकार उसने अनेक कठोर परिस्थितियों को जीवन में सहनीय बनाया। प्रकृति की क्रूरता को सहने की शक्ति अर्जित की। पर भारत में इसे वैज्ञानिक दृष्टि से देखना प्रारंभ हुआ।

इसके साथ आया अनजानी शक्तियों को प्रसन्‍न करने का भाव। फिर यह कि मानव कुछ त्‍याग करे, अपनी प्रिय-से प्रिय वस्‍तु देवताओं को अर्पण करे। इसी से बलि की प्रथा आई। नव प्रस्‍तर युग के प्रारंभ में खेत बोने के पहले उर्वरता ( fertility) की देवी को नर-बलि देने की प्रथा भी कहीं-कहीं थी। कोई नीच, बहिष्‍कृत व्‍यक्ति की बलि नहीं बल्कि चुने हुए सुंदर युवक या युवती की, जिसको वे श्रद्धा से देखते और बलिदान के पहले पूजते। इसके पीछे एक कर्मकांड था और एक मानसिक बाध्‍यता। प्रस्‍तरयुगीन मानव को बलि होने वाले व्‍यक्ति और उसके प्रियजनों को भी इसकी क्रूरता का भास नहीं होता था। भारत में जब अकाल पड़ता तो सोने के हल से प्रमुख या राजा खेत जोतता। ऐसी राजा जनक द्वारा पुत्री सीता को प्राप्‍त करने की कथा है। सबका ध्‍यान आकर्षित करने के लिए यह किया जाता होगा। केवल एक अपवाद भारत में कहा जाता है सतयुग की शुन:शेप कथा। जब बारह वर्ष तक अनावृष्टि के कारण अकाल हुआ तो वर्षा के देवता इंद्र को प्रसन्‍न करने के लिए स्‍वेच्‍छा से अपने को बलि के निमित्‍त एक ब्राम्‍हण पुत्र ने, जिससे माता-पिता तथा समाज की दुर्दशा नहीं देखी गई, अर्पित किया। उसे बलि चढ़ाने खेत पर ले जाया गया। पर हवन प्रारंभ करते ही वर्षा हुई और नर-बलि की नौबत नहीं आई। भारत ने नर-बलि को कभी नहीं स्‍वीकारा।

अनुभव से मानव ने बीमारी का संबंध अनेक प्रकार की गंदगी और छूत से लगाया। इसी से शुचिता के भाव उत्‍पन्‍न हुए। भारतीय जीवन में छुआछूत के विचार इसी से आए। इनकी विकृति भी बाद में आई। इसका संबंध किसी आर्य-अनार्य भाव से न था। अनेक लोगों के साथ रहने पर यह आवश्‍यक था कि सामाजिक जीवन चलाने के लिए शरीर-मन-कर्म की शुद्धता पर बल दिया जाता। इस त्रिविध पवित्रता और उसमें उत्‍कर्ष करने के भाव से श्रेष्‍ठ सामाजिक जीवन यहॉं उत्‍पन्‍न हो सका।

पूर्व प्रस्‍तर युग में कुछ प्रौढ़ स्थिरमति लोग होंगे, जो भावनाओं और अंधविश्‍वासों में सहभागी होते हुए भी अधिक आग्रही तथा साहसी होंगे। इनके ऊपर कबीले के नेतृत्‍व का भार आ पड़ा। प्रकृति के कोप को शांत करना और दैवी विपत्तियों के निराकरण का मार्ग सुझाना, शकुन-अपशकुन का विचार करना आदि कार्य इनके मत्‍थे थे। यही परामर्शदाता एवं पुरोहित बने। संकट-निवारण तथा सौभाग्‍य बुलाने के अनेक टोटकों के ज्ञाता। यह समझना भूल होगी कि उस समय के ये पुरोहित नेता छल-कपट या चालबाजी करते और कबीले उनके शिकार बनते थे। इन सब टोटकों, झाड़-फूँक एवं मंत्र-तंत्र पर उनका विश्‍वास था और कबीले के सर्व-कल्‍याण के लिए ही यह सब किया जाता था। यह पुरोहितों का आदिकालीन व्‍यावरिक विज्ञान था। प्रारंभ में पुरोहित धार्मिक व्‍यक्ति न होकर तत्‍कालीन विज्ञान के अभ्‍यासकर्ता थे।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
०१- समय का पैमाना
०२- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
०३- सभ्‍यता का दोहरा कार्य
०४- पाषाण युग
०५- उत्‍तर- पाषाण युग
०६- जल प्‍लावन
०७- धातु युग
०८- राजा उदयन की राजधानी - कौशांबी
०९- पुराने कबीले मातृप्रधान थे
१०- जादू, टोने टुटके से - विज्ञान के पथ पर

गुरुवार, जनवरी 17, 2008

पुराने कबीले मातृप्रधान थे

आज फ्रॉयड (Freud) , यूँग (Jung) और ऍडलर (Adler) की खोजों और मनोविश्‍लेषण (psycho-analysis) से हम शिशु जीवन की मनोरचना का और सामाजिक जीवन के लिए किस प्रकार उसके अहम् भाव और वासनाओं का ढका जाना, दमन, नियंत्रण,परिष्‍कार तथा उदात्‍तीकरण होता है, इसका अनुमान लगा सकते हैं। दूसरे उस समय की लोककथाऍं, रीति-रिवाज तथा अंधविश्‍वासों से आदि मानस की झलक पा सकते हैं। इस विचारधारा के अवशेष हमारे चाल-चलन एवं रीति-रिवाजों में रूढ़ हो गए हैं। इसके अतिरिक्‍त उसके बनाए चित्र, मूर्तियॉं, प्रतीक और सबसे अधिक पूजा-वस्‍तुऍं उसकी कल्‍पना के झरोखे हैं। पुरातत्‍व के अनुसार आदिकालीन मानव शिशु की भॉंति कल्‍पना चित्रों में सोचते, उसी प्रकार जनित भावावेश में काम करते थे। व्‍यवस्थित क्रमबद्ध विचार बाद में पाश्‍चात्‍य विद्वानों के अनुसार, लगभग ३०,००० वर्ष पहले मानव जीवन में आना प्रारंभ हुआ। भारतीय विचारकों के अनुसार यह बहुत पहले से था।

इसके पहले कि कबीले (tribe) के लोग एक साथ रह सकते, सामाजिकता का तकाजा था कि व्‍यक्तिगत मनोविकारों, कुप्रवृत्तियों और दुर्वासनाओं पर अंकुश लगे। भय, क्रोध आदि सभी पशुभाव मानव में हैं। स्‍तनपायी जीवों के समय से, जब से जीव का सामूहिक जीवन प्रारंभ हुआ, अंत:प्रवृत्ति के निर्माण का अविच्छिन्‍न क्रम मानव तक चलता आया है। यह मानव की पूर्व रचित मनोभूमिका है। उसके चाल-चलन की रचना आगे विधि-निषेधों द्वारा हुई। पर कुछ उसे वंशानुक्रम में पूर्व योनियों से भी प्राप्‍त हुआ। अनेक जातियों में सहजात निषेध ( taboo) पाए जाते हैं।

पुरातत्‍वज्ञों का अनुमान है कि पूर्व पाषाण युग के कबीले मातृप्रधान थे। उनके अनुसार इसका कारण स्त्रियों द्वारा खेती का अन्‍वेषण था। पर बाद के अन्‍वेषण पुरूषों द्वारा होने के कारण उनका महत्‍व बढ़ गया। इसलिए ये पुरातत्‍वज्ञ कहते हैं, ‘समाज पितृप्रधान हो गए।‘ यह दिमागी सैर मात्र है। आज से दो-तीन शताब्‍दी पहले जो अमेरिका, ऑस्‍ट्रेलिया या अफ्रीका में प्रस्‍तरयुगीन मानव के बचे-खुचे कबीले पाए जाते थे, वे साधारणतया पितृप्रधान थे। कुछ पुरातत्‍वज्ञ कहते हैं कि मातृप्रधान समाज अधिक ‘सभ्‍य’ अवस्‍था है। केरल में कुछ मातृप्रधान समाज हैं। वहॉं विवाहोपरांत पति को पत्‍नी के मायके में जाकर रहना पड़ता था। वहीं उन्‍हें उत्‍तराधिकार मिलता था। पर नए हिंदू कानून से उत्‍तराधिकार बदल गया। प्रस्‍तर युग में संभवतया समाज-व्‍यवस्‍था में स्‍त्री-पुरूष दोनों की समान साझेदारी थी।

दो शताब्‍दी पूर्व तक कुछ कबीले संसार में पाए जाते थे। यह आदि समाज की विकृति भी हो सकती है। फिर भी इनके जनमानस में मानसिक तथा सामाजिक विकास की प्रक्रिया दिख सकती है। ऐसे ऑस्‍ट्रेलिया के आदि निवासियों का धार्मिक, सामाजिक जीवन टोटेमवाद ( totemism) पर आधारित था। हर कबीले का एक गण-चिन्‍ह (totem) था, जो साधारणतया कोई जानवर या विरल वनस्‍पति या प्राकृतिक शक्ति होती थी। कबीला उस गण-चिन्‍ह को अपना पूर्वज मानता और उसके नाम पर जाना जाता। कबीले का विश्‍वास था कि वह उनकी रक्षा करता है और देववाणी द्वारा मार्गदर्शन करता है। गण-चिन्‍ह के साथ अनेक निषेध जुड़े थे। वे उस जानवर को मारते न थे, वरन् संरक्षण करते थे। एक गण –चिन्‍ह के लोगों में परस्‍पर विवाह-संबंध का निषेध था। रामायण काल की वानर तथा ऋक्ष (रीछ) जातियॉं ऐसी ही थीं, जिनके गण-चिन्‍ह वानर एवं ऋक्ष थे।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
०१- समय का पैमाना
०२- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
०३- सभ्‍यता का दोहरा कार्य
०४- पाषाण युग
०५- उत्‍तर- पाषाण युग
०६- जल प्‍लावन
०७- धातु युग
०८- राजा उदयन की राजधानी - कौशांबी
०९- पुराने कबीले मातृप्रधान थे

गुरुवार, जनवरी 10, 2008

राजा उदयन की राजधानी - कौशांबी

सन १९५० के दशक में प्रयाग विश्‍वविद्यालय के पुरातत्‍व विभाग ने कौशांबी में उत्‍खनन प्रारंभ किया। गौतम बुद्ध के समय राजा उदयन की इठलाती राजधानी, जहॉं राजप्रासाद में दो सौ मीटर लंबे और सौ मीटर चौड़े एक दरबार का विशाल कक्ष था और उसके बीच था कमल पुष्‍पों से सुशोभित कुंड। कैसा योजित नगर। उन्‍होंने मकानों में पाया मल-जल निपटारे के लिए एक-दूसरे के ऊपर धरी तलहीन नॉंदें, जो जमीन में छह-सात मीटर नीचे तक जाती थीं और ऐसे निर्मित सोख गड्ढे। सिंधु घाटी की सभ्‍यता (जिसके चिन्‍ह सरस्‍वती नदी के लुप्‍त मार्ग से सब जगह बिखरे हैं) नियोजित नगरों के लिए-सड़कें, मार्ग, नालियॉं, जल-निकास, मंदिर, भंडार और निवास के सुख-साधनों के लिए प्रसिद्ध हैं। ये संसार के प्राचीनतम नगर थे।

मेरे साथ एक साम्‍यवादी मित्र कौशांबी गए थे। दरबार के विशाल कक्ष का ऐश्‍वर्य देखकर वे चकराए। पूछा,
'कहॉं है इतने बड़े सम्राट की साम्राज्ञी का महल?’
तो प्राध्‍यापक ने एक चार मीटर लंबे, ढाई मीटर चौड़े कक्ष को, जहॉं से सीढियॉं यमुना में जाती थीं, दिखाकर कहा,
'केवल यह कक्ष सम्राज्ञी का रनिवास दिखता है।‘
आश्‍चर्यचकित होकर मेरे मित्र ने पूछा,
'बस, इतना छोटा कमरा?’
पाश्‍चात्‍य इतिहास की कल्‍पना थी किसी आलीशान महल की।
'एक मनुष्‍य के लिए कितना स्‍थान चाहिए?’
प्राध्‍यापक बोल पड़े। कभी-कभी भारत के प्राचीन जीवन के बारे में विकृत, पूर्वाग्रहजनित धारणाऍं कैसी भ्रमित कल्‍पनाओं को जन्‍म देती है।

व्‍यापार अदला-बदली या वस्‍तु-विनिमय (barter) द्वारा प्रारंभ होना कहा जाता है। पर शीघ्र ही इसके लिए मुद्रा की आवश्‍यकता हुई। वस्‍तु के लिए स्‍वर्ण में मूल्‍य देना भारत में ही प्रारंभ होकर सारी सभ्‍यताओं में फैला। व्‍यापार का प्रमुख केन्‍द्र भारत था। इसके कारण यहॉं के विचार एवं रीति-रिवाज दूसरी सभ्‍यताओं में पहुँचे। स्‍वर्ण विनिमय ने मुद्रा (currency) में स्‍वर्ण मानक (gold standard) को जन्‍म दिया, जो संसार पर बीसवीं सदी तक छाया रहा। स्‍वर्ण का भारतीय जीवन में बहुत बड़ा महत्‍व है। संसार की सबसे पुरानी ( और गहरी) सोने की खान, कोलार, भारत में है। यहॉं सदा से स्‍वर्ण आभूषण पहनने का चलन था। प्राचीन काल में यहॉं के स्‍वर्ण ने भारत को स्‍वर्ण देश (‘सोने की चिड़िया’) नाम दिलाया।

लौकिक उन्‍नति के साथ न्‍यायपूर्ण सामाजिक रचना और उसके लिए उपयुक्‍त विचारों की आवश्‍यकता पड़ती है। विचारों ने मानव जीवन को सार्थक और उदात्‍त बनाया, ‘सत्‍यं शिवं सुंदरम्’ की अनुभूति दी। दूसरी ओर कभी-कभी क्रूरतम, नीच, राक्षसी और भयंकर विकृति तथा दारूण दु:ख को जन्‍म दिया। यह चिंतन समाज के उष:काल का होने पर भी इसके पीछे मानव की पिछली सभी पीढ़ियों के संचित अनुभव हैं और है उसके मन की सानुबंध निर्मिति। इस भूमिका में ही उस काल के चिंतन का अनुमान कर सकते हैं।


कालचक्र: सभ्यता की कहानी
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
०१- समय का पैमाना
०२- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
०३- सभ्‍यता का दोहरा कार्य
०४- पाषाण युग
०५- उत्‍तर- पाषाण युग
०६- जल प्‍लावन
०७- धातु युग
०८- राजा उदयन की राजधानी - कौशांबी

मंगलवार, जनवरी 01, 2008

धातु युगः सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं

यातायात के साधनों के आविष्‍कार के बाद धातु का युग आया, जिससे मानव जीवन में एक बड़ा परिवर्तन आना था। वेदों में धातुओं का वर्णन है। ऋग्‍वेद में अयस (लोहा) एवं हिरण्‍य (सोना) और यजुर्वेद में इनके अतिरिक्‍त तॉंबा (copper), कॉंसा (bronze), सीसा (lead) और रॉंगा (tin) का भी वर्णन है। यजुर्वेद में अयस्‍ताप यंत्र (iron smelter) का भी उल्‍लेख आया है जो खनिज को लकड़ी, कोयला आदि के साथ तपाकर धातु बनाता था। भारत को इतिहास में स्‍वर्ण देश ( जहॉं सोना पैदा होता है) कहा गया है। भारत ने संसार को स्‍वर्ण मानक (gold standard) दिया। राजस्‍थान में तॉंबे की प्राचीन अपसर्जित खदानों के चिन्‍ह हैं, जिनमें दो-तीन सहस्‍त्र वर्ष पूर्व खनिज समाप्‍त होने पर काम बंद हो गया। तॉंबे का प्रयोग हथियार, औजार और पात्र बनाने में होता था। धीरे-धीरे प्रस्‍तर का स्‍थान ताम्र उपकरणों ने ले लिया।

तॉंबे की धार जल्‍दी नष्‍ट हो जाती है, पर यदि तॉंबे और रॉंगे की मिश्र धातु (alloy) बनाई जाए तो कॉंसा होकर कठोर हो जाती है। इसका प्रयोग सिंधु घाटी की सभ्‍यता के प्रारंभ से हम देखते हैं। भारत में तॉंबा और जस्‍ता (Zinc) के खनिज साथ-साथ प्राप्‍त होते हैं। इनकी मिश्र धातु पीतल (brass) का बीसवीं सदी तक भारत में प्रयोग होता रहा है। पुरातत्‍वज्ञ इन यूरोपीय प्रागैतिहासिक कालखंडों को कॉंस्‍य काल ( bronze age) कहकर पुकारते हैं। तभी लौह काल (iron age) आया। संभवतया लौह पाइराइट (iron pyrites) को भट्ठी में कोयला (यह भारत में साथ-साथ उपलब्‍ध है) तथा लकड़ी के साथ जलाकर लोहा प्राप्‍त किया गया। वैसे ही जैसे बस्‍तर के वनवासी आज तक करते चले आए हैं। लोहे के सर्वश्रेष्‍ठ हथियारों के लिए भारत प्रसिद्ध था। लोहे के हथियारों से मानव जीवन की कायापलट हो गई। कहते हैं कि लौह युग आज तक चला आता है। पर भारत में बहुत पहले से धातु का कालखंड था और भिन्‍न धातुओं के कालखंड का विभाजन न था।

सुमेर और मिस्‍त्र, दो प्राचीन सभ्‍यताओं के प्रदेश में तॉंबा, लोहा आदि धातुओं के खनिज अप्राप्‍य थे। इसी प्रकार राल, लकड़ी तथा कोयला भी बाहर से आयात करना पड़ता था। ये सब वस्‍तुऍं भारत में आसपास प्राप्‍त होती थीं। स्‍पष्‍ट है कि खान से धातु का ओषिद (oxide) प्राप्‍त कर उसे कोयला, राल तथा लकड़ी के साथ जपाकर, अर्थात उस क्रिया द्वारा जिसे रसायन शास्‍त्र में अपचयन (reduction) कहते हैं,धातु प्राप्‍त करने की विधि पहले-पहल भारत में खोजी गयी।

सभ्‍यता के चरण धातु के अन्‍वेषण के बाद द्रुत गति से बढ़े। जहॉं कृषि एवं पशुपालन द्वारा मानव ने विज्ञान में पहला कदम उठाया वहॉं दूसरा बड़ा कदम नए-नए आविष्‍कारों का था। मकान, मृद्भांड और वस्‍त्र बनाने की विधि का आविष्‍कार पहले हो चुका था। गाड़ी और पालदार नाव सरीखे यातायात के साधनों का उपयोग करना आ गया था। हथियार तथा बरतनों के लिए धातु का प्रयोग प्रारंभ हुआ। नए आविष्‍कारों ने सामाजिक क्रांति कर दी। प्रथमत: विशेष कार्य करने वाले कुछ वर्ग –ठठेरा, बढ़ई, कुम्‍हार, लोहार आदि बने। धीरे-धीरे ये अपने व्‍यवसाय पर आश्रित हो गए और खेती से इनका संबंध टूट गया। व्‍यक्ति और ग्राम स्‍वयं में पूर्ण न होकर परस्‍परावलंबी बने। दूसरे, नए-नए अन्‍वेषणों से संपत्ति का सृजन हुआ। इससे व्‍यापार प्रारंभ हुआ। यह सारा क्रम भारत में स्‍पष्‍ट है। सिंधु, सुमेर और मिश्र में घटती वर्षा और शुष्‍क होती भूमि ने मानव को नदी के किनारे बसने के लिए विवश किया, जहॉं कृषि तथा व्‍यक्तिगत आवश्‍यकताओं के लिए पर्याप्‍त जल था। नदी किनारे के दलदलों का जल निकालने, झाड़-जंगल साफ करने, बाढ़ को सँभालने के लिए बॉंध बनाने और दूर शुष्‍क स्‍थान पर नहरें ले जाने तथा व्‍यापार की आवश्‍यकताओं ने मानव को बड़े समूहों में, नगर में बसने के लिए बाध्‍य किया। नदियों द्वारा व्‍यापार आसानी से होता था। इस प्रकार नगर-क्रांति मानव जीवन में आई। प्राचीन ग्रंथों में अर्जुन को नगर सभ्‍यता का जन्‍मदाता कहा गया है।

आज भ्रमवश नगर-क्रांति को मानव सभ्‍यता का उदय कहते हैं। पर सभ्‍यता के चरण वहॉं से प्रारंभ हुए जब कुटुम्‍ब मानव जीवन की इकाई बना अथवा मानव ने कबीले के रूप में रहना प्रारंभ किया। यह भी कारण है कि यूरोपीय विद्वानों ने संसार के प्रथम कृषि देश, भारत को दुर्लक्ष्‍य किया। सभ्‍यता का सबसे बड़ा पग था कृषि उद्योग के कारण ग्राम्‍य बस्तियों का सृजन। इस कृषि सभ्‍यता का लाख वर्ष का जीवन, जिसके बाद नगरों की अथवा बड़ी बस्तियों की हलचल प्रारंभ हुई, इन्‍होंने ओझल कर दिया।

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
भौतिक जगत और मानव
मानव का आदि देश
सभ्‍यता की प्रथम किरणें एवं दंतकथाऍं
- समय का पैमाना
- समय का पैमाने पर मानव जीवन का उदय
- सभ्‍यता का दोहरा कार्य
- पाषाण युग
- उत्‍तर- पाषाण युग
- जल प्‍लावन
७- धातु युग