बुधवार, अगस्त 29, 2007

मानव का आदि देश-३

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
मानव का आदि देश
मानव का आदि देश
३ मानव का आदि देश

चतुर्थ हिमाच्‍छानज के समय हिमालय पर्वत से रक्षित प्रकृति की अनुपम छवि-छटा का स्‍थल, उस समय भी सम एवं स्थिर जलवायु के वरदान से मंडित यह भारत, जहॉं प्रकृति ने वनस्‍पति एवं जीव-जंतुओं से भरपूर धरती दी। इनकी विपुलता में मानव जाति को भोजन प्राप्‍त होता रहा। इस सम एवं स्थिर जलवायु के लगभग दो लाख वर्षों ने यहॉं मानव को शारीरिक- मानसिक क्षमता प्राप्‍त करने का अनुपम आश्रय-स्‍थान दिया। उस समय उत्‍तर का यह मैदान अपनी सहायक नदियों के साथ सिंधु और यमुना आदि से सिंचित था। इनके बीच बहती सरस्‍वती नदी, जो आज लुप्‍त हो गई, राजस्‍थान के अंदर तक फैले सागर में गिरती थी। आज कच्‍छ का रन और राजस्‍थान की खारे पानी की सॉंभर झील उस सागर की याद दिलाती है । अब आसपास का सारा स्‍थान बालुकामय मरूस्‍थल हो गया है। हो सकता है कि उस समय आज का सिंध तथा बंगाल के कुछ भाग सागर तल रहे हों। इस सिंधु- यमुना के मैदान के दक्षिण में हैं विंध्‍याचल पर्वत की श्रेणियां, उनके दक्षिण में है भारत का प्रायद्वीप जिसके मानो रत्‍नाकर ( सिंधु सागर), जिसे अब अरब सागर (Arabian Sea) भी कहते हैं, और महोदधि ( गंगा सागर), जिसे अब बंगाल की खाड़ी (Bay of Bengal) कहकर पुकारते हैं, चरण पखार रहे हैं। यह प्रायद्वीप समान उष्‍ण जलवायु के प्राचीन काल के जंगल, महाकांतर और दंडकारण्‍य से ढका था। अरब निवासियों का विश्‍वास है कि यही दक्षिण का प्रायद्वीप, आदम और हव्‍वा की अदन वाटिका (Garden of Eden) है। उसके दक्षिण में है हिंदु महासागर, जिसकी उत्‍ताल तरंगों पर कभी फैला भारत का अधिराज्‍य।

दक्षिण भारत और हिदु महासागर से संबंधितअगस्ति (अगस्‍त्‍य) मुनि की गाथा है। उन्‍होंने विंध्‍याचल के बीच से दक्षिण का मार्ग निकाला। किंविंदंती है कि विंध्‍याचलपर्वत ने उनके चरणों पर झुककर प्रणाम किया। उन्‍होंने आशीर्वाद देकर कहा कि जब तक वे लौटकर वापस नहीं आते, वह इसी प्रकार झुका खड़ा रहे। वह वापस लौटकर नहीं आए और आज भी विंध्‍याचल पर्वत वैसे ही झुका उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। दक्षिणी पठार, जो पीठ की तरह है, उसको देखकर ही झुकने की बात सूझी होगी। उनके चरणों ने दक्षिण जाने का मार्ग सरल किया, इसी से यह जनश्रुति चल निकली। भूवैज्ञानिक (geologists) विश्‍वास करते हैं कि पहले विंध्‍याचल पर्वत ऊँचा था, पर भूकंप युग में नीचा हो गया।

इसके बाद अगस्ति मुनि ने हिंदु महासागर का दूर तक अन्‍वेषण किया। इसी से कहा जाता है कि मानो उन्‍होंने समस्‍त महासागर पी लिया था। उनका बाद का जीवन इस महासागर में घूमते बीता। दक्षिणी गोलार्द्ध के आकाश में चमकते ‘त्रिशंकु नक्षत्र’ (The Southern Cross) को, जो दक्षिण भारत से ही दिखता है, उन्‍होंने हिदु महासागर की नौ-यात्रा का पथ-प्रदर्शक नक्षत्र बनाया। आधुनिक नौ-यात्रा के साधनों के पहले तक दक्षिणी गोलार्द्ध में समुद्र-यात्रा करते समय इस नक्षत्र का प्रयोग चला आता रहा है। त्रिशंकु नक्षत्र के प्रमुख तारे का नाम, जो दक्षिणी खगोलार्द्ध में सबसे अधिक चमकता तारा है, ‘अगस्‍त्‍य’ (Augustus) पड़ा। इसी तारे का उल्‍लेख करते हुए तुलसीदास ने रामचरितमानस के किष्किंधाकांड में लिखा है—
'उदित अगस्ति पंथ जल सोखा।'

गुरुवार, अगस्त 23, 2007

मानव का आदि देश-२

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
मानव का आदि देश
२ मानव का आदि देश

जिस मॉं की ममता से पक्षी एवं स्‍तनपायी जीवों के कुटुंब प्रारंभ हुए, उसी स्‍नेह के स्‍पर्श से सामाजिकता का उदय हुआ। स्‍वाभाविक रूप में मानव ने दल या गिरोह में रहना आरंभ किया। इस प्रकार का जीवन तो ऐसे ही भूभाग में पनप सका जहॉं भोजन प्रचुर मात्रा में था। आज जो भी जीव हैं उनका भोजन वनस्‍पति या जीवजनित पदार्थ ही हैं। ‘जीवो जीवस्‍य जीवनम ‘ इस अर्थ में भी सही है कि जीवन ( अर्थात वनस्‍पति एवं जीव) से प्राप्‍त पदार्थ छोड़ मोटे तौर पर कोई भी अन्‍य वस्‍तु पचाकर मानव शरीर संवर्धन नहीं कर सकता। ऐसी दशा में जीवन ( वनस्‍पति और प्राणी) से समृद्ध प्रदेश ही मानव के कुछ लाख वर्षों की शैशव-लीलास्‍थली बना।

ऐसे रक्षित प्रदेश की सम जलवायु में विशुद्ध मानव ने सामाजिकता के प्रथम पाठ सीखे। यहीं पर साथ रहने की भावना से प्रेरित हो वरदान रूपी वाणी विकसित की। यह कितनी बड़ी देन मानव जीवन को है। वाणी के माध्‍यम से परस्‍पर बात करना, समझना सीखा। वाणी से रूप-भाव उत्‍पन्‍न होते हैं, जिससे क्रमबद्ध विचार संभव हुआ। मन और चरित्र का विकास हुआ और व्‍यक्तित्‍व का बोध हुआ। उसी के साथ आया समाज का जीवन।

नृवंशशास्त्रियों ( ethnologists) का विश्‍वास है कि यूरेशिया और अफ्रीका के उत्‍तरी तट के विशुद्ध मानव एक ही मूल धारा के थे। वे गेहुँए या श्‍यामल रंग के थे। उनकी एक शाखा जो भूमध्‍य सागर के देशों में पाई जाती थी ‘बरबर’ कहलाई और जो उत्‍तरी यूरोप में गई वह ‘नार्डिक’ । सहस्‍त्राब्दियों में धीरे-धीरे बदलाव आया और वे गोरे हो गए। जो पूर्वी एशिया और वहॉं से अलास्‍का होते हुए नई दुनिया, अमेरिका पहुँचे वे कालांतर में कुछ पिंगल हो गए। आर्य और पिंगल प्रजाति अधिक समान हैं, इसी से कुछ नृवंशशास्‍त्री इन्‍हें एक मानते हैं। जो अफ्रीका के घने विषुवतीय (equatorial) जंगलों में रहते थे उनसे सॉंवली नीग्रो प्रजाति बनी। इसी प्रकार के ऑस्‍ट्रेलिया, न्‍यू गिनी आदि के ऑस्‍ट्रेलियाई हैं। इन सबका, या कम-से –कम आर्य एवं पिंगल प्रजातियों का कुछ-न-कुछ अंश लिये यह संगम-स्‍थल भारत है।

गुरुवार, अगस्त 16, 2007

मानव का आदि देश-१

कालचक्र: सभ्यता की कहानी
१ मानव का आदि देश

पुरानी दुनिया का केंद्र – भारत। भूमंडल के गोलक (globe) में पुरानी दुनिया को लें। एक रेखा यूरोप में स्‍कंद देश (स्‍कैंडीनेविया) के उत्‍तरी छोर से आस्‍ट्रेलिया के दक्षणि में तस्‍मानिया (Tasmania) द्वीप तक खींचें और दूसरी साइबेरिया तथा अलास्‍का के बीच बेहरिंग जलसंधि से अफ्रीका के दक्षिण में आशा अंतरीप ( Cape of Good Hope) तक। ये दोनों देखाऍं एक-दूसरे को भारत में पार करती हैं।

चतुर्थ हिमाच्‍छादन का लगभग एक लाख वर्ष का समय जीव के लिए महान विपत्ति का काल था। उसकी पराकाष्‍ठा के समय उष्‍ण कटिबन्‍ध की ओर बढ़ते हिमनद एवं हित के ढक्‍कन ने पश्चिमी तथा उत्‍तरी यूरेशिया को लपेट लिया था। यह एक ओर आल्‍पस पर्वत (Alps) के पार पहुँचा, दूसरी ओर यूरोप और एशिया के मध्‍यवर्ती सागर को छूने लगा,जो काला सागर से कश्‍यप सागर तथा अरल सागर को अपने अंदर समाए हुए उत्‍तर तक फैला था। अधोशून्‍य ( शून्‍य से नीचे) तापमान के भयंकर बर्फानी तूफानों और तुषार ने मध्‍य यूरेशिया का जीवन संकटग्रस्‍त कर दिया। इसमें नियंडरथल मानव काल की भेंट चढ़े। ऐसे समय में केवल उष्‍ण कटिबंध केआसपास पर्वतों की रक्षा-पॉंति की ओट में ही जीवन पल सका। वहॉं इस भीषण संकट से मुक्‍त कोने में विशुद्ध मानव का संवर्धन हो सका। जिस समय नियंडरथल मानव तथा अवमानव मध्‍य यूरेशिया में कठोर शीतलहरी से जूझ रहे थे, उस समय वि शुद्ध मानव ने किसी आश्रय-स्‍थान में शरीरिक गठन तथा अंगों के उपयोग में निपुणता प्राप्‍त की, अनुक पीढियों के अनुभवों से अपने जीवन को समृद्ध किया और मस्तिष्‍क की प्रतिभा का विकास किया।

मंगलवार, अगस्त 07, 2007

भौतिक जगत और मानव - कालचक्र: सभ्यता की कहानी

:१:
वसंत ऋतु की यह सुहावनी अँधेरी रात्रि। आओ, बाहर निकलकर देखें। अभी आठ बजे हैं और रात्रि प्रारंभ हुई है। सारे आकाश में तारे छिटके हुए हैं। यह अनंताकाश और इसमें टिमटिमाते आसमानी दीपक, इन्‍होंने कितनी सुंदर कवि- कल्‍पनाओं को जन्‍म दिया है। प्राचीन काल में हमारे पूर्वजों ने इस आकाश के गोले यानी खगोल (celestial sphere) को देखा था और इसमें चित्रित अनेक तारा समूह, जिन्‍हें उन्‍होंने नक्षत्र (constellation) की शंज्ञा दी, देखकर भिन्न-भिन्न आकारों की कल्पनाऍं की थीं। उन्हीं आकारों से या उनमें स्थित प्रमुख तारे के नाम से ये नक्षत्र पुकारे जाने लगे। तारे और नक्षत्रों के ये नाम भारतीय ब्रम्हांडिकी (Cosmology) की देन है।

जैसे-जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है, तारे पूर्व से पश्चिम की ओर चक्कर काटते दिखाई पड़ते हैं। आकाश में रविमार्ग अर्थात पृथ्वी का केन्द्र, जिस समतल में सूर्य के चारों ओर घूमता है, उसका खगोल (आकाशीय गोले) पर प्रक्षेपण ‘क्रांतिवृत्त’ कहलाता है। इस आकाशीय मार्ग (क्रांतिवृत्त) को १२ बराबर भागों में बॉंटा गया है, जिन्हें राशियां कहते हैं। पूरे वृत्त में ३६० अंश होते हैं, इसलिए प्रत्‍येक राशि ३० अंश की है। यह क्रांतिवृत्‍त २७ नक्षत्रों से गुजरता है और इस प्रकार एक राशि में सवा दो नक्षत्र हैं। ये सभी भारतीय गणनाऍं हैं।

अभी आकाशमंडल के शिरोबिंदु से दक्षिण-पश्चिम में मृगशिरा नक्षत्र (Orion)है, जो आकाश के सबसे मनोहर दृश्यों में से एक है। इसे देहात में ‘हिरना-हिरनी’ कहते हैं। इसमें तीन तारों का एक कटिबंध है और उत्‍तर की ओर है एक लाल तारा ‘आर्द्रा’, तथा दक्षिण में एक चमकदार नीला तारा। कटिबंध एवं पश्चिम के तारे मानो मृग का सिर है और लटकते तीन तारे खूँटा और रस्सी हैं, जिससे वह मृग बंधा है। यह रस्सी खूँटे की रेखा दक्षिण क्षितिज को दक्षिणी बिंदु पर काटती है। इसके पूर्व मिथुन राशि में दो चमकते तारे हैं—‘पुनर्वसु’ एवं ‘कस्तूरी’। उसके पूर्व कर्क राशि में ‘पुष्य’ और ‘अश्लेषा’ हैं तथा उसके भी पूर्व सिंह राशि में ‘मघा’ तारे का उदय हो चुका है। मृगशिरा नक्षत्र के पश्चिम में है रोहिणी नक्षत्र तथा उसी नाम का तारा। उसके पश्चिम दिख रही हैं कृत्तिकाऍं (Pleiades), छोटे-छोटे तारों से भरा एक छोटा सा लंबा-तिकोना पुंज, जिसे देहात में ‘कचबचिया’ कहते हैं। इन्‍हें छोड़ उत्‍तर की ओर दृष्टि डालें तो ध्रुव तारा है और उसके कुछ दूर पूर्व में उदित हुए सप्तर्षि, जिन्हें पहले ऋक्ष ( इसी से अंग्रेजी में Great Bear) कहते थे। इनका चौखटा ऊपर निकल आया है और तीन तारों के हत्थे का अंतिम तारा उदित होने जा रहा है। हत्थे के बीच का तारा ‘वसिष्ठ’ है। उसी के बिल्‍कुल समीप बहुत मद्धिम ‘अरूंधति’ है। चौखटे के ऊपरी दो तारे सीधे ध्रुव तारे की ओर इंगित करते हैं। ध्रुव तारे से नीचे क्षितिज की ओर सप्तर्षि के आकार की ही ऋक्षी (Little Bear) है, जिसके हत्थे का अंतिम तारा ध्रुव है। वैसे ही प्रभात में पॉंच बजे शीर्ष स्थान से कुछ पश्चिम दो ज्वलंत तारे ‘स्वाति’ एवं ‘चित्रा’ क्रमश: थोड़ा उत्तर व दक्षिण में दिखाई देंगे। शीर्ष स्थान के आसपास ‘विशाखा’ नक्षत्र के चार तारे मिलेंगे और पूर्व-दक्षिणी आकाश में वह बिच्छू की शक्ल, वृश्चिक राशि। इस बिच्छू के डंक का चमकीला तारा ‘मूल नीचे की ओर है पर आकाश में सबसे चमकदार तारा ‘ज्येष्ठा’ पास अपनी लाल छवि दिखा रहा है। उसके पश्चिम, जहाँ से बिच्छू के मुख के पंजे प्रारंभ होते हैं, है ‘अनुराधा’।

रात्रि को मृगशिरा के दक्षिण में जिसका आभास-सा दिखेगा, वह गरमी में और भी स्पष्ट, आकाशगंगा की ‘दूध धारा’ (the Milky Way) है। अगणित तारे इस आकाशीय दूध धारा के अंदर दिखते हैं। आकाश गंगा में फैले अगणित तारापुंज हमारी नीहारिका (Galaxy) बनाते हैं। कैसा है यह रंगमंच, जिसके अनंताकाश के धूल के एक कण के समान इस पृथ्वी के अंदर जीवन का उदय हुआ, जिसकी यह कहानी है।

यह नीहारिका [‘दूध धारा’ (the Milky Way)] अधिकांशत: आकाश या शून्यता है, जिसमें अचानक कहीं छोटे से जलते प्रकाश-कण के समान विशाल और लगभग अपरिमित दूरी के बाद तारे मिल जाते हैं। जिस प्रकाश की गति लगभग तीन लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड है उसे भी निकटस्थ तारे से पृथ्वी तक आने में साढ़े चार वर्ष और दूर के तारों से तो लाखों वर्ष लगते हैं। कहते हैं कि हमारी नीहारिका एक-दूसरे से ढकी दो तश्तरियों के समान एक दीर्घवृत्तज (ellipsoid) है, जिसके किनारे आकाश गंगा के रूप में दिखते हैं। इसी से संस्कृत में इसे ‘ब्रम्हांड’ कहा गया। आज विज्ञान कहता है कि इन तारों का रहस्य मानव उसी प्रकार जान रहा है जैसे सागर तट पर बालू के कुछ लोकोक्ति कण उसके हाथ पड़ गए हों। इससे समझ सकते हैं कि भारतीय ब्रम्हांडिकी की देन कितनी बड़ी है।

उन [तारों] की दूरी का पता लगाना भी ‘लंबन सिद्धांत’ (parallax) पर आधारित है। रेलगाड़ी में हम यात्रा कर रहे हों तो खिड़की से दिखता है कि पास के पेड़, खंभे या मकान हमारे विरूद्ध दौड़ रहे हैं, और दूर की वस्तुऍं हमारी ही दिशा में। पृथ्वी भी वर्ष में दो बार—अर्थात२२ जून को, जब दिन सबसे बड़ा तथा रात्रि सबसे छोटी होती है और २२ दिसंबर को, जब दिन सबसे छोटा और रात्रि सबसे बड़ी होती है - अपने सूर्य के चारों ओर दीर्घवृत्त कक्षा के दो दूरस्थ बिंदुओं (पात: elliptical nodes)पर रहती है। इन दोनों बिंदुओं से तारों का लंबन नापकर उनकी दूरी की गणना की गई। भारतीय गणितज्ञ भी इस सिद्धांत से भलीभांति परिचित थे।

कुछ युग्म तारे (double stars) हैं। एक भीमकाय तारे के साथ एक वामन तारा एक-दूसरे का चक्कर काट रहे हैं। उभयनिष्ठ परिभ्रमण में जब भीमकाय सूर्य तारे और पृथ्वी के बीच यह काला एवं अंध वामन तारा आ जाता है तो प्रकाश कुछ धीमा पड़ जाता है। यह काला वामन भीमकाय सूर्य की तुलना में सदा बहुत छोटा, पर अत्यधिक सघन होता है। सप्तर्षि मंडल में उल्लिखित वसिष्ठ और अरूंधति (वसिष्ठ पृथ्वी के पास एवं अरूंधति बहुत दूर), दोनों ऐसे ही युग्म तारे हैं।

कहीं-कहीं अपारदर्शी भीमकाय काले गड्ढे आकाश में दिखाई पड़ते हैं। ये काले छिद्र (black holes) (या ‘कालछिद्र’ इन्हें कहें क्या ?) संभवतया ऐसे पदार्थ या तारे हैं जो प्रकाश-कण को भी आकर्षित करते हैं, अर्थात प्रकाश-कण (photons) उससे बाहर नहीं निकल सकते। कहते हैं कि इन तारों की एक चम्मच धूलि इतनी सघन है कि वह इस पृथ्वी के लाखों टन द्रव्यमान (mass) के बराबर है। इन ‘कालछिद्रों’ के अंदर कैसा पदार्थ है, हम नहीं जानते।किस भयंकर ऊर्जा-विस्फोट के दाब ने परमाणु की नाभि (nucleus)और विद्युत कणों (electrons) को इस प्रकार पीस डाला कि ऐसे अति विशाल घनत्व के पदार्थ का सृजन हुआ? वहॉं पर भौतिक नियम, जैसे हम जानते हैं, क्या उसी प्रकार क्रिया करते हैं ? और ‘काल’ की गति वहॉं क्या है, कौन जाने।

हम जानते हैं कि संसार में निरपेक्ष स्थिरता या गति नहीं है। सभी सापेक्ष र्है। आकाशीय पिंडों में कोई ऐसा नहीं जिसे हम स्थिर निर्देश बिंदु मान सकें। यह प़ृथ्‍वी अपने अक्ष पर घूम रही है, जिससे दिन-रात बनते हैं। यह सूर्य के चारों ओर अपनी कक्षा में घूमती है। इसका अक्ष भ्रमण कक्षा के समतल पर लंब (perpendicular) नहीं, पर लगभग २३.२७ अंश का कोण बनाता है। इससे ऋतुओं का सृजन होता है। यजुर्वेद (२००० संवत पूर्व) के अध्याय 3 की कंडिका छह में कहा गया है- ‘यह पृथ्वी अपनी कक्षा में सूर्य के चारों ओर अंतरिक्ष में घूमती है जिससे ऋतुऍं उत्पन्न होती हैं।‘ इसी प्रकार सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर घूम रहे हैं। उनकी कक्षाओं में भी कोणीय गति है। इनके अक्ष भी कहीं-कहीं टेढ़े नाचते हुए लट्टू के अक्ष की भॉंति घूमते हैं।

सूर्य सौरमंडल सहित अपनी नीहारिका, आकाशगंगा में अनजाने पथ का पथिक है। यह नीहारिका भी घूम रही है अनजाने केंद्र के चारों ओर। संभवतया यह केंद्र ऋग्‍वैदिक ‘वरूण’ है। लगभग ८० करोड़ सूर्य इस नीहारिका में है। तारे, जो शताब्दियों के खगोलीय वेध के बाद ऊपरी तौर पर स्थिर दिखते हैं, अज्ञात पथ पर चल रहे हैं। इन हलचलों के गड़बड़झाले के बीच कौन कह सकता है, क्या गतिमान है और क्या स्थिर। सभी गति सापेक्ष हैं और सारा ब्रम्हाण्ड आंदोलित है।

गुरूत्वाकर्षण, जो पदार्थ मात्र का गुण है,सदा से वैज्ञानिकों के लिये एक पहेली रहा है। वैशेषिक दर्शन (२००० विक्रमी पूर्व) में इसका उल्लेख आया है। आज भी यह पहेली अनबूझी है और प्रकृति का यह नियम है, कहकर हमने छुट्टी पा ली है। पर हम जानते हैं कि चुंबकीय या विद्युतीय आकर्षण (attraction) और अपकर्षण (repulsion) दोनों होते हैं। गुरूत्‍वाकर्षण और त्वरित गति (acceleration) दोनों के प्रभाव समान हैं। अत: ऐसे ही क्या कहीं कोई विलोम-द्रव्‍य (anti-matter) है, जिसका प्रभाव अपकर्षण होगा? यह जादुई द्रव्य अभी मिला नहीं।

साधारणतया पृथ्वी पर हम आकाशीय समष्टि (space) की तीन विमाओं (dimensions) का जगत जानते हैं; पर सापेक्षिकता सिद्धांत इसमें एक नई दिशा, विमा जोड़ देता है ‘समय’ (time) की। इस दिक-काल (space-time) के चतुर्विमीय ताने-बाने में यह संसार बुना हुआ है। गतिमान जगत में कहीं पर भी समय निर्धारण करने पर ही हमें किसी ( आकाशीय) पिंड की सही स्थिति का ज्ञान हो सकता है। पर ‘काल’ विचित्र विमा है। समष्टि की तीन विमाओं में आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, सभी ओर जा सकते हैं; पर ‘काल’ या ‘समय’ सदैव एक ओर प्रवाहित होता है। यह अटल है। बीता हुआ समय फिर कभी वापस नहीं आता। (चाहे जैसी कल्पनाऍं विज्ञान कहानियॉं कर लें।) उसकी यह कैसी अक्षय,अनंत गति है, कौन सा भयानक रहस्य इसमें बँधा है? इसने प्राचीन काल से दार्शनिकों को विमोहित किया है। आज तक इसकी गुत्थी पर जितना विचार हुआ, यह उतनी ही उलझती गयी। ‘काल’ के मूलभूत स्वरूप के बारे में उसकी प्रकृति एवं क्रियाओं पर सोचते हुये भारतीय चिन्तकों ने भौतिकी ( Physics) से पराभौतिकी (Metaphysics) में अतिक्रमण किया है। अंततोगत्वा यह कोरे सिद्धान्तवाद के कल्पना विलास में विलीन हो जाता है। पर इतिहास समय के साथ ग्रथित है।

सूर्य, जिसे हमने जीवन का दाता कहा, अनन्य ऊर्जा केन्द्र है। यह पीला तारा है, तारों के विकास-क्रम में प्रौढ़। यह पृथ्‍वी से लगभग १५ करोड़ किलो मीटर दूर एक आग का गोला है, जहां तप्त-दीप्त धातुओं के वाष्प बादल हिरण्यगर्भ में घुमड़ते रहते हैं। वहाँ से प्रकाश की किरण को पृथ्वी पर आने में लगभग 9 मिनट लगते हैं। सौरमंडल में सूर्य के प्रकाश से आलोकित दस ग्रह एवं अनेक ग्रहिकाऍं हैं, जो दीर्घवृत्त (ellipse) कक्षा में उसकी नाभि पर स्थित सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं। इसके अतिरिक्त हैं अंतरिक्ष से प्रेत की भॉंति पूँछ फटकारते कभी-कभार आने वाले और आदि मानव को भय-विकंपित करने वाले धूमकेतु या पुच्छल तारे।

अंतरिक्ष कैसी विस्तृत शून्यता से व्याप्त है, यह एक नमूना खड़ा करने से समझ में आ सकता है। यदि पृथ्वी की कल्पना ढाई सेंटीमीटर व्यास की एक छोटी गेंद से करें तो सूर्य २८० सेंटीमीटर व्यास का एक गोला उस ढाई सेंटीमीटर की पृथ्वी से २९,४४३ सेंटीमीटर दूर होगा। इसी प्रकार दो मटर के दानों के समान ग्रह बुध (Mercury) एवं शुक्र (Venus) ११,३४० तथा २१,२१४ सेंटीमीटर दूर होंगे। पृथ्वी की कक्षा के बाहर लाल ग्रह मंगल (Mars), नील ग्रह बृहस्पति (Jupiter), वलयित शनि (Saturn), उरण ( Uranus), वरूण ( Neptune), हर्षल ( Herschell) तथा यम (Pluto) उससे क्रमश: ४४६, १,५८८, २,८०४, ५,६४१, ८,८३९, १०,००० (?) तथा १२,४६२ मीटर दूरी पर होंगे। चंद्रमा उपग्रह पृथ्वी से ३६ सेंटीमीटर की दूरी पर मटर के एक छोटे दाने के समान रहेगा। और कुछ अन्य ग्रहिकाएँ, जो लाल ग्रह मंगल एवं नीलग्रह बृहस्पति के बीच सूर्य का चक्कर लगाती हैं, केवल धूलि कणों के समान दिखेंगी। निकटस्थ तारा तो इस पैमाने पर ६४,४०० किलोमीटर दूर होगा और बहुतांश तारे इस छोटे नमूने में करोडों किलोमीटर दूर होंगे। बीच में और चारों ओर मुँह बाए मानो समष्टि की अगाध शून्यता खड़ी है—निष्प्राण, निर्जीव, ठंडी, केवल रिक्तता। कैसा आश्चर्य है कि इस रिक्तता, अर्थात शून्य आकाश और अंतरिक्ष का भाव सुदूर अतीत में भारतीय चिंतकों के मन में आया।

यह संसार, चराचर सृष्टि कैसे आई, यह गुत्थी आज भी रहस्य की अभेद्य चादर ओढ़े खड़ी है। भारतीय दर्शन का कहना है कि जब संसार में एक ही तत्व था तब वह जाना ही नहीं जा सकता था। ऐसी दशा में न जाननेवाला कोई था, न जो जानी जाय वह वस्तु थी। ब्रम्हांडिकी का आदि सूत्र नासदीय सूक्त है - ‘नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम‘। तब कोई अस्तित्व (existence) न था, इसलिये अनस्तित्व (non-existence) भी न था।‘ उस साम्यावस्‍था में आदि पदार्थ (primordial matter) में असंतुलन (imbalance) उत्पन्न होने के कारण भिन्न-भिन्न पदार्थ या पिंड निर्मित हुये। इसी से सृष्टि उत्पन्न हुई (‘सदेव सौम्‍य ! इदमग्रमासीत’)। जब विमोचन होता है तो सृष्टि होती है और जब संकोचन होता है, सब कुछ किसी नैसर्गिक प्रचंड शक्ति के दबाव से सूक्ष्म बनाता है तो प्रलय। आज कुछ वैज्ञानिक विश्वास करते हैं कि ब्रम्हांड किसी मध्यमान के दोनों ओर स्पंदित है और इस समय विस्तार की अवस्था में है। जड़ जगत के निर्माण की यह परिकल्पना ( hypothesis) आज भी अपने ढंग की अनूठी है।

:२:
समय के पैमाने में ब्रम्हाण्ड कब प्रारम्भ हुआ ? समय का स्वाभाविक नपना एक अहोरात्र (दिन-रात) है। इसी का सूक्ष्म रूप ‘होरा’ है, जिससे अंग्रेजी इकाई ‘आवर’ (hour) बनी। पृथ्वी सूर्य के चारों ओर एक वर्ष घूमती है, जिसमें ऋतुओं का एक क्रम पूर्ण होता है। इसे ज्योतिष में ‘सायन वर्ष’ कहते हैं। यह ३६५.२५६ अहोरात्र के बराबर है। चंद्रमा, जिसका एक ओर का चेहरा ही सदा पृथ्वी से दिखता है, एक चंद्रमास में (जो २७ अहोरात्र ७ घंटा ४३ मिनट ८ सेकेंड का होता है) पृथ्वी का एक चक्कर लगाता है। हमारे पंचांग में चंद्रमास से गणना एवं सौर गणना की असंगति को मिटाने के लिए ढाई वर्ष के अनंतर एक चंद्रमास बढ़ा देने की परंपरा है, जिसे अधिमास (अर्थात अधिक मास) कहते हैं। प्राचीन काल से समय की गणना भारत स्थित उज्जैन के समय ( देशांतर ८२०.३०) से होती थी, जो ग्रीनविच (Greenwich) समय से ५.३० घंटे पहले है। यह पुरातन काल में अंतरराष्ट्रीय काल-गणना की पद्धति थी।

भारतीय ज्योतिष (astronomy) के ‘सूर्य- सिद्धान्त’ के अनुसार एक महायुगीन इकाई ‘मन्वंतर’ है। कृतयुग (सतयुग), त्रेता, द्वापर एवं कलियुग को मिलाकर एक चतुर्युगी हुई। कलियुग के ४,३२,००० वर्ष होते हैं, द्वापर उसका दुगुना, त्रेता उसका तिगुना और कृतयुग उसका चौगुना है। अर्थात एक चतुर्युगी कलियुग की दस गुनी हुई। इस प्रकार ७१ चतुर्युग एक ‘मन्वंतर’ बनाते हैं। प्रत्येग मन्वंतर के बाद कृतयुग के बराबर (१७,२८,००० वर्ष) की संध्या अथवा संधिकाल है। इस प्रकार 14 मन्वंतर और उनके संधिकाल की १५ संध्या ( जो स्वयं मिलकर ६ चतुर्युगों के बराबर है), अर्थात १००० चतुर्युगों के बराबर एक ‘कल्प’ (४.३२x१०^९ वर्ष) है। यह ब्रम्हा का एक दिवस है। 2 कल्प मिलकर ब्रम्हा का ‘अहोरात्र’ और ऐसे ३६० ब्रम्ह अहोरात्र मिलकर ब्रम्हा का एक वर्ष कहाते हैं। यह समय-गणना हमें कल्पना के एक ऐसे छोर पर पहुँचा रही है जहॉं मस्तिष्क चक्कर खाने लगे। काल के जिस प्रथम क्षण से हमारे यहॉं गणना आरंभ हुई, उससे इस समय ब्रम्हा के ५१ वें वर्ष का प्रथम दिवस अर्थात कल्प है। इस कल्प के भी ६ मन्वंतर अपनी संध्या सहित बीत चुके हैं। यह सातवाँ (वैवस्वत) मन्वंतर चल रहा है। इसके २७ चतुर्युग बीत चुके हैं, अब २८वें चतुर्युग के कलियुग का प्रारंभ है। यह विक्रमी संवत कलियुग के ३०४४ वर्ष बीतने पर प्रारंभ हुआ। जब हम किसी धार्मिक कृत्य के प्रारंभ में ‘संकल्प’ करते हैं तो कहते हैं—‘ब्रम्हा के द्वितीय परार्द्ध में, श्वेत वारह कल्प में, ७वें ( वैवस्वत) मन्‍वंतर की २८वीं चतुर्युगी के कलियुग में, इस विक्रमी संवत की इस चंद्रमास की इस तिथि को, मैं संकल्प करता हूँ—‘ इतने विशाल ‘काल’ इकाई की आवश्यकता सृष्टि एवं सौरमंडल के काल-निर्धारण के लिए हुई।

खगोलीय वेध से ग्रहों की गति जानने के बाद हमारे पूर्वजों ने सोचा होगा, वह कौन सा वर्ष होगा जिसके प्रारंभ के क्षण सभी ग्रह एक पंक्ति में रहे होंगे। यह विज्ञान की उस कल्पना के अनुरूप है जो सौरमंडल का जन्म किसी अज्ञात आकाशीय भीमकाय पिंड के सूर्य के पास से गुजरने को मानते हैं, जिससे उसका कुछ भाग गुरूत्वाकर्षण से खिंचकर तथा ठंडा होकर सूर्य के चक्कर लगाते भिन्न-भिन्न ग्रहों के रूप में सिकुड़ गया। तभी से काल-गणना का प्रारंभ मान लिया। इस प्रकार यह कल्प अर्थात ब्रम्हांड विक्रमी संवत के १.२१५३१०४१x१०^८ वर्ष पहले प्रारंभ हुआ। अपने यहॉं इसे प्रलय के बाद नवीन सृष्टि का प्रारंभ मानते हैं। इस समय ब्रम्हा की रात्रि समाप्त हुई, संकोचन समाप्त हुआ और विमोचन से सृष्टि फिर जागी। सुदूर अतीत में की गई भारतीय ज्योतिष की इस काल-गणना को आधुनिक खोजों ने सर्वोत्तम सन्निकट अनुमान बताया है।

सौरमंडल कैसे बना, इसके बारे में वैज्ञानिकों के दो मत हैं। पहले सौरमंडल की उष्ण उत्पत्ति की परिकल्पना थी। सूर्य के प्रचंड तरपमान पर, जहॉं सारी धातुऍं तापदीप्त वाष्प अवस्था में हैं, यह चक्कर खाता सूर्य गोला जब किसी विशाल आकाशीय पिंड के पास से गुजरा तो उसके प्रबल गुरूत्वाकर्षण से इसका एक भाग टूटकर अलग हो गया। परंतु फिर भी सूर्य के गुरूत्वाकर्षण से बँध रहकर यह सूर्य की परिक्रमा करने लगा। कालांतर में ठंडा होकर उसके टुकड़े हो गए और वे ठोस होकर ग्रह बने। इसी से सूर्य के सबसे पास और सबसे दूर के ग्रह सबसे छोटे हैं तथा बीच का ग्रह बृहस्पति सबसे बड़ा है। संभवतया एक ग्रह मंगल एवं बृहस्पति के बीच में था, जो किसी कारण से चकनाचूर हो गया और उसके भग्नावशेष छोटी-छोटी ग्रहिकाओं के रूप में दिखते हैं। पृथ्वी, जो कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि नाशपाती की तरह थी, के सिर का टुकड़ा टूटकर पृथ्वी की परिक्रमा करने लगा। इसी से प्रशांत महासागर का गड्ढा और चंद्रमा उपग्रह बना। अमृत मंथन की पौराणिक गाथा है कि सागर से चंद्रमा का जन्म हुआ। धीरे-धीरे ऊपरी पपड़ी जम गई, पर भूगर्भ की अग्नि कभी-कभी ज्वालामुखी के रूप में फूट पड़ती है। वर्तमान में सौरमंडल की शीत उत्पकत्त की एक नई कल्पना प्रस्‍तुत हुई है। पर साधारणतया आज वैज्ञानिक एक विस्फोट (big bang) में सौरमंडल की उत्पत्ति मानते हैं, जब पृथ्वी व अन्य ग्रह अलग हो गए।


आजकल बिग बैंग सौरमंडल की उत्पत्ति मानी जाती है। उसी समय पृथ्वी व अन्य ग्रह अलग हो गए। उस समय वनस्पतिविहीन पृथ्वी में तूफान नाशलीला करते होंगे। पृथ्वी के घूर्णन (revolution) में अपकेंद्री बल (centrifugal force) के कारण तप्त वाष्प के रूप में भाप आदि ऊपर आ गए या ठंडे हो रहे धरातल से उष्णोत्स (geyser) के रूप में फूट निकले। जल क्रिया से परतदार तलछटी शैल ( sedimentary rocks) का कालांतर में निर्माण हुआ। ज्वालामुखी ने अग्नि तथा लावा बरसाया। भूकंप और अन्य भीम दबाव ने बड़े-बड़े भूखंडों को खिलौने की तरह तोड़ डाला, इनसे पहाड़ों का निर्माण हुआ। ये तलछटी शैल पुन: अग्नि में पिघलकर बालुकाश्म (sandstone) या आग्नेय शैल (igneous rocks ) बने। इस तरह अनेक प्रकार की पर्वतमालाओं का जन्म हुआ। यह प्रक्रिया वाराह अवतार के रूप में वर्णित है।

पृथ्वी पर फैली आज की पर्वत-श्रृंखला को देखें, अथवा उसके किसी प्राकृतिक मानचित्र को लें। इसमें हरे रंग से निचले मैदान तथा भूरे,स्लेटी, बैंगनी और सफेद रंग से क्रमश: ऊँचे होते पर्वत अंकित हैं। यह पर्वत-श्रेणी मानो यूरोप के उत्तर नार्वे ( स्कैंडिनेविया : स्कंद देश) में फन काढ़े खड़ी है। फिर फिनलैंड से होकर पोलैंड, दक्षिण जर्मनी होते हुए स्विस आल्पस ( Swiss Alps) पर्वत पर पूर्व की ओर घूम जाती है। यहॉं से यूगोस्लाविया, अनातोलिया (एशियाई तुर्की), ईरान (आर्यान) होकर हिंदुकुश पर्वत, फिर गिरिराज हिमालय, आगे अल्टाई और थियनशान के रूप में एशिया के सुदूर उत्तर-पूर्व कोने से अलास्का में जा पहुँचती है। वहॉं से यह पर्वत-श्रेणी राकीज पर्वतमाला बनकर उत्तरी अमेरिका और एंडीज पर्वत-श्रृंखला बनकर दक्षिणी अमेरिका पार करती है। अंत में इस सर्पिल श्रेणी की टेढ़ी पूँछ नई दुनिया के दक्षिणी छोर पर समाप्त होती है। पुरानी दुनिया के उत्तर नार्वे से नई दुनिया के दक्षिणी छोर तक इस संपूर्ण नगराज को लें। इसने सर्प की भॉंति इस सारी दुनिया को आवेष्टित कर रखा है। हिमयुग के बाद पिघलती बर्फ के जल से प्लावित संसार में उभरा हुआ कुछ शेष रहा तो यह नगराज। मानो इसके द्वारा धरती की धारणा हुई। यही पुरानी भारतीय कल्पनाओं का शेषनाग है।

यह हमारी पृथ्वी ४०,००० किलोमीटर परिधि का गोला है। इसका ज्ञान ऊपरी पपड़ी तक सीमित है। इसे चारों ओर से अवगुंठित करता वायुमंडल ऊपर क्षीण होता जाता है और चिडियाँ कठिनाई से छह किलोमीटर ऊँचाई तक उड़ सकती हैं तथा वायुयान दस किलोमीटर तक। उष्णकटिबंध में भी सात किलोमीटर के ऊपर हिम से ढके पर्वतों पर कोई जीवन नहीं है। सागर में मछलियॉं या वनस्पति लगभग पॉंच-किलोमीटर गहराई तक ही मिलती हैं। इसी धरातल में जीवन का विकास हुआ।

:३:
कितने वर्ष पृथ्वी को निष्फल, अनुर्वर भटकना पड़ा, जब जीवन का प्रथम प्रस्फुटन हुआ? संभवतया एक प्रकार का अध: जीवन (sub-life) तीन अरब (३x१०^९) वर्ष पहले, सद्य: निर्मित ज्वालामुखी के लावा और तूफानों द्वारा ढोए कणों पर ज्वार-भाटा द्वारा निर्मित कीचड़ के किनारे, पोखरों तथा समुद्र-तटो के उष्ण छिछले जल में उत्पन्न हुआ, जहॉं सूर्य की रश्मियॉं कार्बनिक द्विओषिद (carbon-di-oxide) और भाप से बोझिल वातावरण से छनकर अठखेलियॉं करती थीं। इस पृथ्वी पर जीवन की उत्पत्ति चमत्कारिक घटना थी क्या? जीवन के प्रति जिज्ञासा ने मानव को अनादि काल से चकित किया है।

यूनान के दार्शनिक काल में अरस्तु (Aristotle) ने स्वत: जीवन उत्पत्ति का सिद्धांत रखा। उसका कहना था कि जैसे गोबर में अपने आप कीड़े पैदा होते हैं वैसे ही अकस्मात जड़ता में जीवन संश्लेषित हो जाता है। यह विचार इतना व्याप्त हुआ कि यूरोप के २,५०० वर्षों के इतिहास में इसी का बोलबाला रहा। यूरोप में लोगों ने चूहे बनाने का फॉर्मूला तक लिखकर रखा। रक्त, बलि आदि तांत्रिक कर्मकांड के विभिन्न नुस्खे बने। पर सूक्ष्मदर्शी ( microscope) का आविष्कार होने पर देखा गया कि एक बूँद पानी में हजारों सूक्ष्म जंतु हैं। लुई पाश्चर ने पदार्थ को कीटाणुविहीन करने की प्रक्रिया (sterilization) निकाली। उस समय फ्रांसीसी विज्ञान परिषद (L’ Academie Francaise) ने यह सिद्ध करने के लिए कि जड़ वस्तु से स्वत: ही जीवन उत्पन्न हो सकता है या नहीं, एक इनाम की घोषणा की। लुई पाश्चर ने यह सिद्ध करके कि जीव की उत्पत्ति जीव से ही हो सकती है, यह पुरुस्कार जीता। आखिर जो कीड़े गोबर के अन्दर पैदा होते हैं वे उस गोबर के अंदर पड़े अंडों से ही उत्पन्न होते हैं।

पर इससे पहले-पहल जीवन कैसे उत्पन्न हुआ, यह प्रश्न हल नहीं होता। ऐसे वैज्ञानिक अभी भी हैं जो यह विश्वास करते हैं कि पृथ्वी पर जीवन उल्का पिंड (meteors) द्वारा आया।

बाइबिल (Bible) में लिखा है—‘ईश्वर की इच्छा से पृथ्वी ने घास तथा पौधे और फसल देनेवाले वृक्ष, जो अपनी किस्म के बीज अपने अंदर सँजोए थे, उपजाए; फिर उसने मछलियॉं बनाई और हर जीव, जो गतिमान है, और पंखदार चिडियॉं तथा रेंगनेवाले जानवर और पशु। और फिर अपनी ही भॉंति मानव का निर्माण किया और जोड़े बनाए। फिर सातवें दिन उसने विश्राम किया।‘ यही सातवॉं दिन ईसाइयों का विश्राम दिवस (Sabbath) बना। इसी प्रकार की कथा कुरान में भी है। पर साम्यवाद (communism) के रूप में निरीश्वरवादी पंथ आया। इन्होंने ( ओपेरिन, हाल्डेन आदि ने) यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि जीवन रासायनिक आक्षविक प्रक्रिया (chemical atomic process)से उत्पन होकर धीरे धीरे विकसित हुआ। इसे सिध्द करने के लिए कि ईश्वर नहीं है, उन्होने प्रयोगशाला में जीव बनाने का प्रयत्न किया। कहना चाहा, ‘कहाँ है तुम्हारी काल्पनिक आत्मा और कहाँ गया तुम्‍हारा सृष्टिकर्ता परमात्मा ?’ साम्यवादियों का यह अभिमान कि ईश्वर पर विश्वास के टुकड़े प्रयोगों द्वारा कर सकेंगे, उनकी खोज को कहॉं पहुँचा देगा, उनको पता न था। उन्होंने ईश्वर संबंधी विश्वासों का मजाक उड़ाया और यही उनके शोधकार्य की प्रेरणा बनी।

जीवों के शरीर बहुत छोटी-छोटी काशिकाओं से बने हैं। सरलतम एक-कोशिकाई (unicellular) जीव को लें। कोशिका की रासायनिक संरचना हम जानते हैं। कोशिकाऍं प्रोटीन (protein) से बनी हैं और उनके अंदर नाभिक में नाभिकीय अम्ल (nuclear acid) है। ये प्रोटीन केवल २० प्रकार के एमिनो अम्‍ल (amino acids) की श्रृंखला-क्रमबद्धता से बनते हैं और इस प्रकार २० एमिनो अम्ल से तरह-तरह के प्रोटीन संयोजित होते हैं। अमेरिकी और रूसी वैज्ञानिकां ने प्रयोग से सिद्ध किया कि मीथेन (methane), अमोनिया (ammonia) और ऑक्सीजन (oxygen) को कॉंच के खोखले लट्टू के अंदर बंद कर विद्युत चिनगारी द्वारा एमिनो अम्ल का निर्माण किया जा सकता है। उन्होंने कहना प्रारंभ किया कि अत्यंत प्राचीन काल में जीवविहीन पृथ्वी पर मीथेन, अमोनिया तथा ऑक्सीजन से भरे वातावरण में बादलों के बीच बिजली की गड़गड़ाहट से एमिनो अम्ल बने, जिनसे प्रोटीन योजित हुए।

अपने प्राचीन ग्रंथों में सूर्य को जीवन का दाता कहा गया है। इसीसे प्रेरित होकर भारत में ( जो जीवोत्पत्ति के शोधकार्य में सबसे आगे था) प्रयोग हुए कि जब पानी पर सूर्य का प्रकाश फॉरमैल्डिहाइड (formaldehyde) की उपस्थिति में पड़ता है तो एमिनो अम्ल बनते हैं। इसमें फॉरमैल्डिहाइड उत्प्रेरक (catalyst) का कार्य करती है। इसके लिए किसी विशेष प्रकार के वायुमंडल में विद्युतीय प्रक्षेपण की आवश्यकता नहीं।

अब कोशिका का नाभिकीय अम्ल ? इमली के बीज से इमली का ही पेड़ उत्पन्न होगा, पशु का बच्चा वैसा ही पशु बनेगा, यह नाभिकीय अम्ल की माया है। यही नाभिकीय अम्ल जीन (gene) के नाभिक को बनाता है, जिससे शरीर एवं मस्तिष्क की रचना तथा वंशानुक्रम में प्राप्त होनेवाले गुण—सभी पुरानी पीढ़ी से नई पीढ़ी को प्राप्त होते हैं। जब प्रजनन के क्रम में एक कोशिका दो कोशिका में विभक्त होती है तो दोनो कोशिकायें जनक कोशिका की भाँति होंगी, यह नाभिकीय अम्ल के कारण है। पाँच प्रकार के नाभिकीय अम्ल को लेकर सीढ़ी की तरह अणु संरचना से जितने प्रकार के नाभिकीय अम्ल चाहें, बना सकते हैं। नाभिकीय अम्ल में अंतर्निहित गुण है कि वह उचित परिस्थिति में अपने को विभक्त कर दो समान गुणधर्मी स्वतंत्र अस्तित्व धारणा करता है। दूसरे यह कि किस प्रकार का प्रोटीन बने, यह भी नाभिकीय अम्ल निर्धारित करता है। एक से उसी प्रकार के अनेक जीव बनने के जादू का रहस्य इसी में है।

क्या किसी दूरस्थ ग्रह के देवताओं ने, प्रबुद्ध जीवो ने ये पाँच नाभिकीय अम्ल के मूल यौगिक (compound) इस पृथ्वी पर बो दिए थे?

एक कोशिका में लगभग नौ अरब (९x१०^९) परमाणु (atom) होते हैं। कैसे संभव हुआ कि इतने परमाणुओं ने एक साथ आकर एक जीवित कोशिका का निर्माण किया। विभिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोटीन या नाभिकीय अम्ल बनने के पश्चात भी यह प्रश्न शेष रहता है कि इन्होंने किस परिस्थिति में संयुक्त होकर जीवन संभव किया।

भारत में डॉ. कृष्ण बहादुर ने प्रकाश-रासायनिक प्रक्रिया (photo-chemical process) द्वारा जीवाणु बनाए। फॉरमैल्डिहाइड की उत्प्रेरक उपस्थिति में सूर्य की किरणों से प्रोटीन तथा नाभिकीय अम्ल एक कोशिकीय जीवाणु मे संयोजित हुए। ये जीवाणु अपने लिए पोषक आहार अंदर लेकर, उसे पचाकर और कोशिका का भाग बनाकर बढ़ते हैं। जीव विज्ञान (biology) में इस प्रकार स्ववर्धन की क्रिया को हम उपापचय (metabolism) कहते हैं। ये जीवाणु अंदर से बढ़ते हैं, रसायनशाला में घोल के अंदर टँगे हुए सुंदर कांतिमय रवा (crystal) की भॉंति बाहर से नहीं। जीवाणु बढ़कर एक से दो भी हो जाते हैं,अर्थात प्रजनन (reproduction) भी होता है। और ऐसे जीवाणु केवल कार्बन के ही नहीं, ताँबा, सिलिकन (silicon) आदि से भी निर्मित किए, जिनमें जीवन के उपर्युक्त गुण थे।

कहते हैं कि जीव के अंदर एक चेतना होती है। वह चैतन्य क्या है? यदि अँगुली में सुई चुभी तो अँगुली तुरंत पीछे खिंचती है, बाह्य उद्दीपन के समक्ष झुकती है। मान लो कि एक संतुलित तंत्र है। उसमें एक बाहरी बाधा आई तो एक इच्छा, एक चाह उत्पन्न हुई कि बाधा दूर हो। निराकरण करने के लिए किसी सीमा तक उस संतुलित तंत्र में परिवर्तन (बदल) भी होता है। यदि यही चैतन्य है तो यह मनुष्य एवं जंतुओं में है ही। कुछ कहेंगे, वनस्पतियों, पेड़-पौधों में भी है। पर एक परमाणु की सोचें—उसमें हैं नाभिक के चारों ओर घूमते विद्युत कण। पास के किसी शक्ति-क्षेत्र (fore-field) की छाया के रूप में कोई बाह्य बाधा आने पर यह अणु अपने अंदर कुछ परिवर्तन लाता है और आंशिक रूप में ही क्यों न हो, कभी-कभी उसे निराकृत कर लेता है। बाहरी दबाव को किसी सीमा तक निष्प्रभ करने की इच्छा एवं क्षमता—आखिर यही तो चैतन्य है। यह चैतन्य सर्वव्यापी है। महर्षि अरविंद के शब्दों में, ‘चराचर के जीव ( वनस्पति और जंतु) और जड़, सभी में निहित यही सर्वव्यापी चैतन्य ( cosmic consciousness) है।‘

पर जीवन जड़ता से भिन्न है, आज यह अंतर स्पष्ट दिखता है। सभी जीव उपापचय द्वारा अर्थात बाहर से योग्य आहार लेकर पचाते हुए शरीर का भाग बनाकर, स्ववर्धन करते तथा ऊर्जा प्राप्त करते हैं। जड़ वस्तुओं में इस प्रकार अंदर से बढ़ने की प्रक्रिया नहीं दिखती। फिर मोटे तौर पर सभी जीव अपनी तरह के अन्य जीव पैदा करते हैं। निरा एक- कोशिक सूक्ष्मदर्शीय जीव भी; जैसे अमीबा (amoeba) बढ़ने के बाद दो या अनेक अपने ही तरह के एक-कोशिक जीवों में बँट जाता है। कभी-कभी अनेक अवस्थाओं से गुजरकर जीव प्रौढ़ता को प्राप्त होते हैं, और तभी प्रजनन से पुन: क्रम चलता है। किसी-न-किसी रूप में प्रजनन जीवन की वृत्ति है, मानो जीव-सृष्टि इसी के लिए हो। पर ये दोनों गुण‍ जीवाणु में भी हैं। यदि यही वृत्तिमूलक परिभाषा (functional definition) जीवन की लें तो जीवाणु उसकी प्राथमिक कड़ी है।

कोशिका में ये वृत्तियॉं क्यों उत्पन्न हुई ? इसका उत्तर दर्शन, भौतिकी तथा रसायन के उस संधि-स्थल पर है जहां जीव विज्ञान प्रारंभ होता है। यहां सभी विज्ञान धुँधले होकर एक-दूसरे में मिलते हैं, मानों सब एकाकार हों। इसके लिये दो बुनियादी भारतीय अभिधारणाएँ हैं—(1) यह पदार्थ (matter) मात्र का गुण है कि उसकी टिकाऊ इकाई में अपनी पुनरावृत्ति करनेकी प्रवृत्ति है। पुरूष सूक्त ने पुनरावृत्ति को सृष्टि का नियम कहा है। (2) हर जीवित तंत्र में एक अनुकूलनशीलता है; जो बाधाऍं आती हैं उनका आंशिक रूप में निराकरण, अपने को परिस्थिति के अनुकूल बनाकर, वह कर सकता है। इन गुणों का एक दूरगामी परिणाम जीव की विकास-यात्रा है। चैतन्य सर्वव्यापी है और जीव तथा जड़ सबमें विद्यमान है,यह विशुद्ध भारतीय दर्शन साम्यवादियों को अखरता था। उपर्युक्त दोनों भारतय अभिधारणाओं ने, जो जीवाणु का व्यवहार एवं जीव की विकास-यात्रा का कारण बताती हैं, उन्हें झकझोर डाला।

यह विश्वास अनेक सभ्यताओं में रहा है कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना की। भारतीय दर्शन में ईश्वर की अनेक कल्पनाऍं हैं। ऐसा समझना कि वे सारी कल्पनाऍं सृष्टिकर्ता ईश्वर की हैं, ठीक न होगा। ईश्वर के विश्वास के साथ जिसे अनीश्वरवादी दर्शन कह सकते हैं, यहॉं पनपता रहा। कणाद ऋषि ने कहा कि यह सारी सृष्टि परमाणु से बनी है।

सांख्य दर्शन को भी एक दृष्टि से अनीश्वरवादी दर्शन कह सकते हैं। सांख्य की मान्यता है कि पुरूष एवं प्रकृति दो अलग तत्व हैं और दोनों के संयोग से सृष्टि उत्पन्न हुई। पुरूष निष्क्रिय है और प्रकृति चंचल; वह माया है और हाव-भाव बदलती रहती है। पर बिना पुरूष के यह संसार, यह चराचर सृष्टि नहीं हो सकती। उपमा दी गई कि पुरूष सूर्य है तो प्रकृति चंद्रमा, अर्थात उसी के तेज से प्रकाशवान। मेरे एक मित्र इस अंतर को बताने के लिए एक रूपक सुनाते थे। उन्होंने कहा कि उनके बचपन में बिजली न थी और गैस लैंप, जिसके प्रकाश में सभा हो सके, अनिवार्य था। पर गैस लैंप निष्क्रिय था । न वह ताली बजाता था, न वाह-वाह करता था, न कार्यवाही में भाग लेता था, न प्रेरणा दे सकता था और न परामर्श। पर यदि सभा में मार-पीट भी करनी हो तो गैस लैंप की आवश्यकता थी, कहीं अपने समर्थक ही अँधेरे में न पिट जाऍं। यह गैस लैंप या प्रकाश सांख्य दर्शन का ‘पुरूष’ है। वह निष्क्रिय है,कुछ करता नहीं। पर उसके बिना सभा भी तो नहीं हो सकती थी।

इसी प्रकार प्रसिद्ध नौ उपनिषदों में पॉंच उपनिषदों को, जिस अर्थ में बाइबिल ने सृष्टिकर्ता ईश्वर की महिमा कही, उस अर्थ में अनीश्वरवादी कह सकते हैं। जो ग्रंथ ईश्वर को सृष्टिकर्ता के रूप में मानते हैं उनमें एक प्रसिद्ध वाक्य आता है, ‘एकोअहं बहुस्यामि’। ईश्वर के मन में इच्छा उत्पन्न हुई कि मैं एक हूँ, अनेक बनूँ, और इसलिए अपनी ही अनेक अनुकृतियॉं बनाई—ऐसा अर्थ उसमें लगाते हैं। पर एक से अनेक बनने का तो जीव का गुण है। यही नहीं, यह तो पदार्थ मात्र की भी स्वाभाविक प्रवृत्ति है।

भारतीय दर्शन के अनुसार यह सृष्टि किसी की रचना नहीं है, जैसा कि ईसाई या मुसलिम विश्वास है। यदि ईश्वर ने यह ब्रम्हाण्ड रचा तो ईश्वर था ही, अर्थात कुछ सृष्टि थी। इसलिए ईश्वर स्वयं ही भौतिक तत्व अथवा पदार्थ था, ऐसा कहना पड़ेगा। ( उसे किसने बनाया?) इसी से कहा कि यह अखिल ब्रम्हांड केवल उसकी अभिव्यक्ति अथवा प्रकटीकरण (manifestation) है, रचना अथवा निर्मित (creation) नहीं। उसी प्रकार जैसे आभूषण स्वर्ण का आकार विशेष में प्रकटीकरण मात्र है। इसी रूप में भारतीय दर्शन ने सृष्टि को देखा।

धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों को यह विचार कि जीवन इस पृथ्वी पर स्वाभाविक और अनिवार्य रासायनिक- भौतिक प्रक्रिया द्वारा बिना किसी चमत्कारी शक्ति के उत्पन्न हुआ, इसलिए प्रतिकूल पड़ता है कि वे जीव का संबंध आत्मा से जोड़ते हैं। उनका विश्वास है कि बिना आत्मा के जीवन संभव नहीं और इसलिए कोई परमात्मा है जिसमें अंततोगत्वा सब आत्माऍं विलीन हो जाती हैं। पर जड़ प्रकृति का स्वाभाविक सौंदर्य, वह स्फटिक (crystal), वह हिमालय की बर्फानी चोटियों पर स्वर्ण-किरीट रखता सूर्य, वह उष:काल की लालिमा या कन्याकुमारी का तीन महासागरों के संधि-स्थल का सूर्यास्त, अथवा झील के तरंगित जल पर खेलती प्रकाश-रश्मियॉं- ये सब कीड़े-मकोडों से या कैंसर की फफूँद से या अमरबेल या किसी क्षुद्र जानवर से निम्न स्तर की हैं क्या? पेड़-पौधे और उनमें उगे कुकुरमुत्ते में आत्मा है क्या ? एक बात जो मुसलमान या ईसाई नहीं मानते। सृष्टि में इस प्रकार के जीवित तथा जड़ वस्तुओं में भेदभाव भला क्यों ?

शायद हम सोचें, सभी जीवधारियों का अंत होता है। ‘केहि जग काल न खाय।‘ वनस्पति और जंतु सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं और उनका शरीर नष्ट हो जाता है। परंतु यदि एक-कोशिक जीव बड़ा होकर अपने ही प्रकार के दो या अधिक जीवों में बँट जाता है तो इस घटना को पहले जीव की मृत्यु कहेंगे क्या ? वैसे तो संतति भी माता-पिता के जीवन का विस्तार ही है, उनका जीवनांश एक नए शरीर में प्रवेश करता है।

जीवन और मृत्यु का रहस्य अपने प्राचीन चिंतन का बहुत बड़ा भाग रहा है। यह चिंतन आत्मा रूपी केंद्र से प्रारंभ होकर संपूर्ण जीव और जड़ सृष्टि तथा उनके नियमों को व्याप्त करता था। इस दर्शन में कालांतरजनित विकृति, क्षेपक, अंधविश्वास और मत-मतांतरों के तोड़-मरोड़ जुड़ गए। पर आज भी उसकी नैसर्गिक हृदयग्राही अपील देश तथा युगों के परे सनातन है। इसलिए यह हिंदु संस्कृति आध्यात्मिक कहलाई।

इसी से संबंधित पुनर्जन्म का विश्वास है। मेरे एक मामाजी का पुत्र तीन-चार वर्ष की अवस्था में युद्ध के आधुनिकतम शास्त्रास्त्रों की, जिन्हें कम आयु में समझना संभव न था, चर्चा करने लगा। उसने बताया कि कैसे लद्दाख के मोरचे पर खंदक में एकाएक प्रबल प्रकाश कौंध गया। उसी समय एक चीनी बम गिरने से वह आहत हो गया और अंत में सैनिक अस्पताल में उसकी मृत्यु हो गई; कि वह डोगरा है और उसके पत्नी और बच्चे हैं। इस तरह की अनेक घटनाऍं सुनने में आती हैं, जहॉं जीवन-मरण के उस पार से अचेतन मन को स्पर्श करता हुआ एक इंद्रियातीत स्मृति का झोंका आ रहा हो परा-मनोविज्ञान ( para psychology) के रहस्यों के इन किनारों की ओर,जिन्हें पहले कपोल कल्पना कहकर टाल देते थे, अब वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित हो रहा है। फिर भी जिस ‘आत्मा’ की खोज में ऋषि-मुनियों ने इतनी पीढियॉं लगाई, उसका ज्ञान आज विलक्षण अनुभूमि के अतिरिक्त दिखता नहीं, न वैज्ञानिक जगत इसे समझता है।

इसी ‘आत्मा’ के साथ उलझा है जीवन-मरण का परम सत्य। वास्तव में जीवन और मृत्यु क्या है, यह निश्चित रूप से कहना कठिन है। और उनके बीच की विभाजन रेखा प्रारंभ में कहाँ थी, यह जानना तो और कठिन है। भारत में ‘आत्मा’ साधारणतया उस अनुभूति को मानते थे जो किसी शरीर को अनुप्राणित रखे और परमात्मा मन की उस चरम अनुभूमि को, जो सृष्टि में व्याप्त सामूहिक सत्ता का बोध कराए।

:४:
जीव के स्ववर्धन, प्रवजन और मृत्यु रूपी चक्र (cycle)के आश्चर्यजनक परिणाम हुए। इस चक्र के कारण जीव के विकास का चमत्कार संभव हुआ। जो पैदा होता है, व‍ह ( कभी-कभी अन्य अवस्थाओं से गुजरकर) अपने जनक की तरह बनता है। पर वह ठीक जनक का प्रतिरूप नहीं होता, कुछ-न-कुछ अंतर रहता ही है, क्योंकि वह एक पृथक व्यक्तित्व है। आज का जीव- संसार अपने पूर्वजों की तरह है, जो काल-गर्त में चले गए, पर उनसे भिन्न है, क्योंकि यह अपनी प्रजाति की नई पीढ़ी है। यह सभी जीवधारियों के लिए, कीट- पतंगों से लेकर मानव तक, काई से लेकर आधुनिक वृक्षों तक; सत्य है कि जीव की एक पीढ़ी मरण को प्राप्त होती है तो पुन: उस जाति की नई पीढ़ी खड़ी हो जाती है।

सोचें कि नवजन्य पीढ़ी का क्या होगा? यह सच है कि कई दुर्घटना के शिकार बनेंगे या भाग्य उनसे आँखमिचौली खेलेगा, पर साधारणतया जो जीवन यात्रा के लिए अधिक उपयुक्त है, वे टिके रहेगें, प्रौढ़ बनेंगे और नई पीढ़ी को जन्म देंगे; जबकि कमजोर और अनुपयुक्त छँट जाऍंगे। इस प्रकार हर पीढ़ी में उपयुक्त का चयन और अनुपयुक्त की छँटनी सी होती रहती है। इसे हम ‘प्राकृतिक वरण’( natural selection) या ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’(survival of the fittest) कहते हैं। इसके द्वारा विभिन्न योनियाँ (species) अपने को प्रत्येक पीढ़ी में काल एवं परिस्थिति के अनुकूल बनाती चलती हैं।

परिस्थितियाँ एक-सी नहीं रहतीं और जलवायु में कभी-कभी आकस्मिक परिवर्तन भी होते हैं। नई पीढ़ी की अनुकूलनशीलता की एक सीमा है। नई पीढ़ी में इक्की-दुक्की संरचना की विलक्षणताऍं, जो पीढ़ी के अंदर की व्यक्तिगत विभिन्नताओं से परे हों, प्रकट होती हैं,जिन्हें जीव विज्ञान में ‘उत्परिवर्तन’ (mutation) कहते हैं। कभी-कभी ये उत्परिवर्तन जीवन-संघर्ष में बाधा बनकर खड़े होते हैं या बेतुका, अनर्गल उत्परिवर्तन हुआ तो प्राकृतिक वरण द्वारा ऐसे जीवों की छँटनी हो जाती है। कभी ये उत्परिवर्तन जीवन-संघर्ष में सहायक होते हैं तथा ऐसे जीवों को अपनी जाति में प्रोत्साहन मिलता है। और कभी-कभी ये उत्परिवर्तन उस जाति की जीवित रहने की शक्ति को प्रभावित नहीं करते, पर असंबद्ध होने पर भी फैल जाते हैं।

जब परिस्थिति या जलवायु में शीघ्रता से परिवर्तन होता है और कोई सहायक उत्परिवर्तन नहीं होते तो समूची योनि ( प्रजाति) नष्ट हो जाती है। पर जहां बदलती परिस्थिति के साथ अनुकूल उत्परिवर्तन होते हैं और उन्हें क्रमिक पीढियों द्वारा फैलने का समय मिलता है तो कठिन समय को पार कर वह प्रजाति पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने को जलवायु एवं परिस्थिति की चुनौती स्वीकार करने योग्य बनाती है। इसी को योनियों का रूपांतर (modification of species) कहते हैं। यदि एक भाग में परिवर्तन आया तो पूर्वजों से भिन्न एक नई प्रजाति खड़ी होगी। यही योनियों अथवा प्रजातियों का विभेदीकरण (differentiation of species) है।

इस प्रकार जीवन सदा बदल रहा है। इस जन्म, वर्द्धन, प्रजनन और मृत्यु के चक्कर में फँसकर, प्राकृतिक उथल-पुथल के बीच, विकासपरक परिवर्तन उसकी मूल प्रवृत्ति है। पुरानी प्रजातियॉं लुप्त होती रहेंगी और नई, जो परिस्थितियों की चुनौती का सामना कर सकेंगी, प्रकट होंगी। यही इतिहास की प्रक्रिया है। जैसे यह जीव के लिए सच है वैसे ही मानव सभ्यता के लिए।

मेरे बचपन में एक चुटकुला कहा जाता था। दार्शनिक ने पूछा, ‘मुरगी पहले आई या मुरगी का अंडा।‘ आखिर मुरगी के पहले मुरगी का अंडा रहा होगा, जिससे मुरगी ने जन्म लिया, और अंडे के पहले मुरगी, जिसने वह अंडा दिया। पर यह स्पष्ट है कि यह मुरगी, जो अंडे से निकली, वह मुरगी नहीं है जिसने अंडा दिया था। यह उससे भिन्न सदा विकसित होती रही, अनगिनत सूक्ष्म परिवर्तनों से होकर। इसलिए उपर्युक्त प्रश्न उठता ही नहीं।

जीवन के विकास के पद-चिन्ह प्रकृति ने पृथ्वी की पपड़ी के शैलखंडों पर छोड़े हैं। पर यह उस पुस्तक की तरह है जो अनजान भाषा में लिखी गई है, जिसके पन्ने फट गए हैं। कुछ उलट-पुलट कर गायब भी हो गए हैं। कुछ गल गए या जल गए हैं। अथवा क्रूर समय के हाथों ने जिनके भग्नावशेषों को इधर-उधर सभी दिशाओं में विसर्जित कर दिया है।

पर शैल चिन्ह छोड़ सकने के लिए भी जीव को लंबी विकास यात्रा करनी पड़ी। केन नदी के उदगम स्थान के पास एक सहायक नदी में पारभासी (translucent)पत्थर मिलते हैं, जिनमें तरह- तरह के पेड़ पौधे या अन्य चित्र हैं । ये काई के अवशेष लिये पारभासी स्फटिक हैं। अरबों वर्षो के महायुग में एक प्रकार का अध:जीवन ही इस पृथ्वी पर रहा। जब जीव में सीप-घोघें सरीखा कवच या हड्डी या ढांचा प्रारंभ हुआ, तभी से पुराजीवी चट्टानों(palaeozoic rocks) में जीवन की विविधता के संकेत मिलने लगे। पहले घोंघे,सीपी और कीड़े (केकड़े,भीमकाय समुद्री बिच्छू और जलीय रंगनेवाले जीव) और समुद्री सेंवार आदि, ऊपरी परतों में मछलियॉ। इसके बाद आते हैं उभयचर (amphibian) जो जल, थल दोनों में रह सकते हैं और कार्बोनी युग (carboniferous age) के बड़े-बड़े पर्णांग (fern) के जंगल। इन जंगलों की लुगदी आज कोयले के रूप में पृथ्वी की परतों में विद्ययमान है।

जल के बिना जीवन असंभव है। निर्जल (dehydration)होने पर वनस्पति और जंतु मर जाते हैं। कहा गया है कि जल ही अमृत है। आदि जीव जल के बाहर फिंक जाने पर ‘बिना जल के मीन’सरीखे मर जाते थे। इसलिए उन अत्परिवर्तनों को, जिनके द्वारा सूखे में जीव अपने अंदर की नमी कुछ देर बनाए रख सके, प्रोत्साहन मिला। आदि-जैविक महाकल्प (proterozoic age) की विस्तीर्णता में प्रकृति के वे प्रयोग हुए जिनसे जीवन निरंतर जल में रहने की बाध्‍यता से मुक्‍त हो चला।

अगला मध्यजीवी महाकल्प (mesozoic age) जीवन की प्रचुरता और विस्तार के नए चरण से प्रारंभ होता है। अब आए जल रेख के ऊपर नीची भू‍मि पर, सदाहरित वनस्पति और इनके साथ तरह-तरह के सरीसृप; इनकी दुनिया विवधिता से भरपूर थी। डायनासोर (dinosaur : दानवासुर) शरीर में तिमिंगल मछली (whale) के बराबर थे। अर्थर कैनन डायल का एक उपन्यास ‘वह खोई दुनिया’ (The Lost World) प्रसिद्ध है। यह एक अगम्य पठार की, जहॉ मध्यजीवी कल्प के भयानक जानवर थे, उनके बीच कुछ लोगों के जोखिम की कहानी है।

इस भरे-पूरे भीमकाय जंतुओं के कल्प का अंत बड़ा विचित्र है। एक दिन ये जंतु अपने आप मिट गए। जैसा पुराजीवी कल्प के अंत में एक लंबे समय का अंतरात आता है वैसा ही मध्यजीवी कल्प के अंत में हुआ। पर किसी अनजाने भाग्य ने इन भयानक, भीममाय सरीसृपों का सत्यानाश कर डाला। मनव के अवतरण के पहले सबसे विलक्षण घटना यही है। ये सरीसृप स्थिर ग्रीष्म जलवायु में रहने के आदी थे। यह तभी होगा जब पृथ्वी की घुरी उसकी कक्षा पर प्राय: लंबवत् (perpendicular) होगी। एकाएक कठोर शीतयुग आया। इस सर्दी को या तापमान के तात्कालिक बदल को सहन करने का सामर्थ्य उस कल्प के जीवन में न था और सरीसृप एवं वनस्पति संभ्वतया जलवायु की चंचलता के शिकार बने। संभवतया किसी अत्यंत प्रचंड खगोलीय शक्ति से या आकाशीय पिंडाघात से पृथ्वी की धुरी,जो उसकी कक्षा पर प्राय: लंबवत् थी, एक ओर झुक गई। तब ग्रीष्म-शीत ऋतुऍ प्रारंभ हुई । आज भी हम नहीं जानते कि अनिश्चित काल में पृथ्वी को आच्छादित करते ‘हिमयुग’ (ice age) क्यों आए।

भरतीय भूविज्ञान के अनुसार चतुर्युगी के बाद कृतयुग के बराबर संध्या है,प्रलय के कारण सुनसान तथा उजाड़ (देखें – खण्ड २)। इसके बाद विमोचन में पुन: सृष्टि खुलती है। जिस समय जीवन की गाथा मध्यजीवी महाकल्‍प के अंत में विध्वंस और सूने अंतराल के बाद पुन: अपनी विपुलता में खिली, तब नूतनजीवी कल्प(cainozoic age) आ चुका है। विलुप्त भीमकाय सरीसृपों का स्थान उनसे विकसित स्तनपायी जीवों तथा पक्षियों ने ले लिया हे। उनके साथ आधुनिक वृक्ष दिखाई देने लगे हैं । इनमें फूल लगने लगे हैं और इसके साथ आया है तितलियों का थिरकना तथा मधुमक्खियों का गुंजन । मध्यजीवी कल्प के अंत में आई घास ने अब मैदानों और नग्न पर्वतों को छा दिया और वह चट्टानों के नीचे से झॉकने लगी।

स्तनपायी और पक्षी, जो उस महानाश से बच सके, उन सरीसृपों से, जो उसकी बलि चढ़े, कुछ बातों में भिन्न थे। प्रथम, ये तापमान के हेर-फेर सहने में अधिक समर्थ थे। स्तनपायी के शरीर पर रोएँ थे और पक्षी के पर। स्तनपायी को रोएँदार सरीसृप कह सकते हैं। इन बालों ने उसकी रक्षा की। दूसरे स्तनपायी गर्भ को शरीर के अंदर धारण कर और पक्षी अपने अंडे को सेकर उनका ठंडक से त्राण करते हैं और जन्म के बाद अपने बच्चों की, कुछ काल तक ही क्यों न हो, देखभाल करते हैं।

इस अंतिम विशेषता ने स्तनपायी और पक्षियों को एक पारिवारिक प्राणी बना दिया। माँ अपने बच्चे की चिंता करती है, इसलिए अपने कुछ अनुभव एवं शिक्षा अपनी संतति को दे जाती है। किशोरावस्था के पहले माता-पिता पर संतान की निर्भरता और उनका अनुकरण, इससे नई पीढ़ी को सीख देने का राजमार्ग खुला। इसके द्वारा इन प्रजातियों में पीढ़ी – दर – पीढ़ी व्यवहार एवं मनोवृत्ति का सातत्य स्थापित हो सका। एक छिपकली की जिन्दगी उसके स्वयं के अनुभवों की एक बंद दुनिया है। पर एक कुत्ते या बिल्ली को अपने व्यक्तित्व के विकास में वंशानुगत माता के द्वारा देखरेख, उदाहरण एवं दिशा सभी प्राप्त हुई हैं। माँ की ममता ने जीव की मूल अंत:प्रवृत्ति (instinct)में, जो पहले कुछ सीमा तक अपरिवर्तनीय थी, सामाजिक संसर्ग की एक कड़ी जोड़ दी वह शिक्षा तथा ज्ञान देने में सक्षम थी। इसके कारण तीव्र गति से मस्तिष्क का विकास संभव हुआ । आज सभी स्तनपायी जीवों के मस्तिष्क नूतनजीवी कल्प के प्रारंभ के अपने पूर्वजों से लगभग आठ-दस गुना बढ़ गए हैं।

यह नूतनजीवी कल्प का उष:काल था। उसके बाद धरती की कायापलट करनेवाला मध्य नूतन युग (miocene)आया, जो भूकंप काल था और जिसमें बड़ी पर्वत-श्रेणियों का निर्माण हुआ। हिमालय, आल्पस और एंडीज तभी बने। उस समय तापमान गिर रहा था। इसके बाद अतिनूतन युग (pliocene) में आज की तरह का जलवायु और पर्याप्त नवीन जीवन था। पीछे आया अत्यंत नूतन अथवा सद्य: नूतन युग (Pleistocene),जिसे हिमानी युग (glacial age) भी कहते हैं। इस युग में अनेक बार हिमनद ध्रुवों से विषुवत् रेखा की ओर बढ़े और आधी पृथ्वी बर्फ से ढक ली। ऐसे समय में सागरों का कुछ जल पृथ्वी के हिम के ढक्कनों ने समाविष्ट कर लिया और समुद्र से भूमि उघड़ आई। आज वह पुन: सागर तल है। ये हिमाच्छादन जीवन के लिए महान् संकट थे। अब पृथ्वी पुन: उतार – चढ़ाव के बीच धीरे-धीरे ग्रीष्मता की ओर सरक रही है, ऐसा वैज्ञानिक विश्वास है।
नूतनजीवी कल्प के हिमानी युग के घटते-बढ़ते हिम आवरण से मुक्त प्रदेश में अवमानव (sub-man) की झलक दिखाई पड़ती है। यह नूतनजीवी कल्प लाया हिमानी और तज्जनित भयानक विपत्तियाँ और मानव।

:५:
जीवन, जो सागर में कीट या काई की एक क्षीण लहरी-सा प्रारंभ हुआ, उसकी परिणति लाखों योनियों (प्रजातियों: species) से होकर प्रकृति के सर्वश्रेष्ठ जीव मानव में हुई। पर डारविन (Darwin) ने अपनी प्रसिद्ध पुस्‍तकें ‘प्रजातियों की उत्पत्ति’(Origin of Species) और ‘मानव का अवतरण’ (Descent of Man) में विकासवाद, और यह सिद्धान्त कि मानव जैविक विकास-क्रम की नवीनतम कड़ी है, प्रतिपादित किया तो उसके विरूद्ध एक बवंडर उठ खड़ा हुआ। कुछ स्थनों पर इसके पढ़ाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बाइबिल पूर्व विधान (Old Testament) के उत‍पत्ति अध्‍याय (Genesis),जिसको ईसाई और मुसलमान दोनों ही मानते हैं, के विचारों से यह मेल नहीं खाता था। वहाँ वर्णित अदन वाटिका (Garden of Eden) की कहानी विदित है। ‘ईश्वर ने पहले आदम (Adem) का अपनी अनुकृति में निर्माण किया और फिर उसकी पसली से हव्वा (Eve) को। उसी वाटिका में सर्प के लुभाने से ज्ञानवृक्ष का वर्जित सेब खाने के कारण ईश्वर के शाप से पीड़ित हो मानव संतति प्रारम्भ हूई। जैसे यह मानव जाति विकास का वरदान न होकर शाप का परिणाम हो, जिसे नारी आज तक ढ़ो रही है। पश्चिमी जगत ने इन कथानकों का शाब्दिक अर्थ लेना छोड़ दिया, फिर भी कुछ लोगों ने मजाक उड़ाया- ‘डारविनपंथी समझें कि वे बंदर की संतान हैं। हम नहीं है’। यद्यपि डारविन ने ऐसा कुछ नहीं कहा था।

रामायण में कपियों का उल्लेख आता है । पर त्रेता युग के जिन ‘वानर’ एवं ‘ऋक्ष’ (रीछ) जातियों का वर्णन है, वे हमारी तरह मनुष्‍य थे। ऑस्ट्रेलिया के आदि निवासियों में अभी तक ऐसी जातियॉ हैं जो किसी प्राणी को पवित्र मानतीं, उसकी पूजा करतीं और उसी के नाम से जानी जाती हैं। इसी प्रकार वानर और ऋक्ष जातियों के गण – चिन्ह थे।

‘पर मानव का वंश – क्रम आदि जीवन से प्रारंभ होता है’ , यह तथ्‍य केवल रीढ़धारी जंतुओं (vertebrates या chordate) के अस्थि – पंजर एवं प्रजातियों के तुलनात्‍मक अध्ययन पर आधारित नहीं है। उसके इस वंश – क्रम का सबसे बड़ा प्रमाण तो मानव – गर्भ की जन्म के पहले की विभिन्न अवस्थाऍ हैं। मानव – गर्भ प्रारंभ होता है जैसे वह मछली हो – वैसे गलफड़े और अंग – प्रत्यंग। वह उन सभी अवस्‍थाओं से गुजरता है जो हमको क्रमश: उभयचर,सरीसृप और स्तनपायी जीवों की याद दिलाते हैं । यहाँ तक कि कुछ समय के लिए उसके पूँछ भी होती है। जीवन के संपूर्ण विकास –क्रम को पार कर वह मानव – शिशु बनता है। यह आयुर्वेद को ज्ञात था।

पुराणों में कहा गया है कि चौरासी लाख योनियों से होकर मानव जीवन प्राप्त होता है। आज भी वैज्ञानिक अस्सी लाख प्रकार के जंतुओं का अनुमान करते हैं। पहले कुछ प्रेत योनियों की कल्पना थी, अभी तक हम नहीं जानते कि वे क्या हैं। पतंजलि ने ‘योगदर्शन’ के एक सूत्र में कहा है कि प्रकृति धीरे – धीरे अपनी कमियों को पूरा करते चलती है, जिसके कारण एक प्रकार का जीव दूसरे में बदल जाता है । यह चौरासी लाख योनियों से होकर मानव शरीर प्राप्त करने की संकल्‍पना सभी जंतुओं को एक सूत्र में गूंथती है। उसके भी आगे, मानव के निम्नस्थ जंतु से विकास का संकेत करती है।

शायद हमें ‘रामचरितमानस’ की उक्ति याद आए – ‘छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा।।‘ पर यह पदार्थ (द्रव्य) (matter) की भिन्न अवस्‍थाओं (state)या लक्षणों का वर्णन है। ‘क्षिति’ से अभिप्राय ठोस पदार्थ (solid) है, ‘जल’ से द्रव (liquid), ‘समीर’ से गैस, ‘पावक’ से ऊर्जा (energy) और ‘गगन’(space) से शून्यता । शरीर इन सभी से बना है। ये रासायनिक मूल तत्व (chemical elements) नहीं हैं।

जिस समय डारविन की पुस्तकें प्रकाशित हुई, लोग कपि और मानव के संसंध कडियों में जीवाश्म के विषय में पूछते थे। इस ‘अप्राप्त’ कड़ी (missing link) की बात को लेकर हँसी उड़ाई जाती थी। पर मानव जाति का संबंध सागर से बहुत पहले छूट चुका था। उसके मानव के निकटतम पूर्वज कभी बड़ी संख्या में न थे। वे अधिक होशियार भी थे। अत: आश्चर्य नहीं कि नूतनजीवी कल्प में अवमानव के अस्थि – चिन्ह दुर्लभ या अप्राप्य हैं । वैसे अभी शैल पुस्तिका का शोध प्रारंभिक है। भारत (या एशिया-अफ्रीका), जहाँ अवमानव के बारे में प्रकाश डालनेवाले सबसे मूल्यवान सूत्र दबे होंगे, लगभग अनखोजें हैं।

कभी इस पृथ्वी पर कापियों से भिन्न मानव सदृश प्राणी था, यह हम इस कल्प के पत्थर के हथियारों से जानते हैं । ये चकमक के टुकड़े ऐसे अनगढ़ थे कि वर्षो यही विवाद चलता रहा कि ये प्राकृतिक हैं या कृत्रिम । पर आज पुरातत्‍वज्ञ (archaeologists) यह मानते हैं कि वे किसी प्राणी के द्वारा निर्मित हैं। नूतनजीवी कल्प के अतिनूतन युग में इनके प्रथम दर्शन होते हैं। इसके बाद ये हिमानी युग के प्रथम अंतरिम कालखंड (first inter-glacial period) में बराबर मिलते रहते हैं।

धीरे – धीरे यूरोप में पचास हजार वर्ष से कुछ पुरानी मानवसम खोपडियॉ और हड्डियाँ बड़े प्राणी की प्राप्त होती हैं। तब चौथा हिमाच्छादन पराकाष्ठा पर पहुंच रहा था और तत्कालिक मानव ने कंदराओं में शरण ली। इन्हें ‘नियंडरथल मानव’(Neanderthal man)कहते हैं। यह मानव की भिन्न जाति थी । इनके कुछ चिन्ह मिल सके; क्योंकि हिमयुग के शीत से बचने के लिए इन्होंने कंदराओं की शरण गही। उसके मुख के पास अग्नि प्रज्वलित की – शीत तथा जानवरों से त्राण पाने के लिए।

अग्नि, संसार का अद्वितीय आविष्कार, इसको सुलगाकर सदा प्रज्वलित रखना आदि मानव की चिंता का विषय था । यवन मिथक (Greek mythology)में वर्णित प्रोमीथियस (Prometheus)की एक कहानी है। वह स्वर्ग से अग्नि चुराकर पृथ्वी पर लाया। इसके लिए उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया। अंग्रेजी साहित्य में भी मानव जाति के इस महान उपकारी के काव्य लिखे गए हैं। पर ‘प्रोमीथियस’ तो ‘प्रमंथन’ का अपभ्रंश मात्र है। प्रमंथन से ,रगड़ से, यह अग्नि जो अदृश्य थी, प्रकट हुई। अंगिरा ऋषि ने दो सूखी लकड़ी के टुकड़ों के प्रमंथन से, या चकमक टुकड़ों की रगड़ द्वारा अग्नि उत्पन्न करने की विधि बताई है।

नियंडरथल मानव के बारे में अनेक कल्‍पनाऍ पुरातत्वज्ञों ने की हैं। रूड्यार्ड किपलिंग (Rudyard Kipling) की बाल कहानी ‘द जंगल बुक’(The Jungle Book) आदि भेड़ियों की कहानियों पर आधारित है। पर नियंडरथल मानव उस समय की प्रकृति की सर्वश्रेष्‍ठ कृति थी। बहुत बड़ा मस्तिष्क एवं तीक्ष्ण इंद्रियाँ उन्हें मिली थीं, साथ ही विकासजनित सामाजिकता के भाव। पुरातत्वज्ञों ने कल्पना में ये सब ओझल कर दिए।

चतुर्थ हिमाच्छादन में बहुत सारा पानी हिम आवरणों में समाविष्ट हो गया और कुछ भूमि, जो पहले सागर तल थी, निकल आई। हो सकता है कि अफ्रीका का उत्तरी भाग यूरोप से मिला हो । भूमध्य सागर (Mediterranean Sea) के स्थान पर संभवतया बीच में एक या दो झीलें सागर तल से नीची भूमि पर थीं । उधर यूरोप और एशिया के बीच अपने अंदर काला सागर (Black Sea), कश्यप सागर (Caspian Sea) और अरल सागर (Aral Sea) को समाए सुदूर उत्तर तक एक मध्यवर्ती सागर लहराता था; जिसके कारण यूरोप (प्राचीन नाम योरोपा, संस्कृत ‘सुरूपा’ ) एक महाद्वीप कहलाया । उत्तरी ध्रुव प्रदेश से बढ़ते हिम – पुंज ने आल्पस पर्वत के पास तक मघ्य यूरोप ढ़क लिया और उक्त योरेशिया के मध्यवर्ती सागर को छूने लगा।

चतुर्थ हिमाच्छादन के बाद लगभग चालीस सहस्र वर्ष पूर्व ,जब पुन: शीतोष्ण जलवायु मध्य यूरोप में लौटी तब एक भिन्न मानव प्रजाति दक्षिण एवं पूर्व से यूरोप में आने लगी। धीरे- धीरे प्रत्येक शताब्दी में बर्फ उत्तर की ओर हटती गई। यूरोप की जलवायु सुधरी और घास के मैदान एवं वृक्ष भी उत्तर की ओर बढ़े । नवीन मानव प्रजाति उनके पीछे-पीछे नए स्‍थानों पर पहुंची। यह नई प्रस्तरयुगीन प्रजाति विशुद्ध मानव (Homo Sapiens) की थी, जो हम सब हैं।

कालांतर में नियंडरथल मानव भी नष्ट हो गए। संभ्वतया प्रा‍कृतिक विकास क्रम में, या चतुर्थ हिमाच्छादन का भयंकर शीत न सह सकने के कारण । मानव की जो जाति नियंडरथल मानव के बाद आई, वह खुले में रहती थी, पर उसने नियंडरथल मानव की कंदराओं और स्थानों पर भी आधिपत्य जमाया। कुछ पुरातत्वज्ञ ऐसा विश्वास करते हैं कि शायद नियंडरथल मानव का नवीन मानव से भिन्न प्रजाति होने के कारण (जैसे कुत्ते और बिल्ली भिन्न हैं), उनका संकरण नहीं हुआ। पर नियंडरथल मानव चतुर्थ हिमाच्छादन में ही समाप्त हो गए।

:६:
जो उष्ण छिछले सागर के अंदर छोटे से कंपन से लेकर जीव की विकास यात्रा मानव तक आई, वह विकास शारीरिक संरचना और मस्तिष्क में ही नहीं, किंतु प्रवृत्ति, मन तथा भावों के निर्माण में भी हुआ।

जिस प्रकार का विकास कीटों में हुआ वह अन्यत्र नहीं दिखता। मक्खी की एक ऑंख में लगभग एक लाख ऑंखें होती हैं। इन दो लाख ऑंखों से वह चारों ओर देख सकती है। एक कीड़ा अपने से हजार गुना बोझ उठा कसता है। अपनी ऊँचाई-लंबाई से सैकड़ों गुना ऊँचा या दूर कूद सकता है। कैसी अंगो की श्रेष्ठता, कितनी कार्यक्षमता! फिर प्रकृति ने एक और प्रयोग किया कि कीटवंश, उनका समूह एक स्वचालित इकाई की भॉंति कार्य करे। सामूहिकता में शायद सृष्टि का परमोद्देश्य पूरा हो। कीटों के अंदर रची हुई एक मूल अंत:प्रवृत्ति है, जिसके वशीभूत हो वे कार्य करते हैं। इसके कारण लाखों जीव एक साथ, शायद बिना भाव के (?) रह सके। कीटवंशों की बस्तियॉं बनीं। उनका सामूहिक जीवन सर्वस्व बन गया और कीट की विशेषता छोड़ वैयक्तिक गुणों का ह्रास हुआ। इससे मूल जैविक प्रेरणा समाप्त हो गई। प्रारंभिक कम्युनिस्ट साहित्य में इसे समाजवादी जीवन का उत्कृष्ट उदाहरण कहा जाता रहा। इस प्रकार मिलकर सामूहिक, किंतु यंत्रवत कार्य से आगे का विकास बंद हो जाता है। कीट आज भी हमारे बीच विद्यमान हैं। पर पचास करोड़ वर्षों से इनका विकास रूक गया।

रीढ़धारी जतुओं में मछली, उभयचर, सरीसप, पक्षी एवं स्तनपायी हैं। पहले चार अंडज हैं, पर स्तनपायी पिंडज हैं। प्रथम तीन साधारणतया एक ही बार में हजारों अंडे देते हैं, एक अटल, अंधी, अचेतन प्रवृत्ति के वश होकर। पर मॉं जानती नहीं कि अंडे कहॉं दिए हैं और कभी-कभी वह अपने ही अंडे खा जाती है। लगभग सात करोड़ वर्ष पूर्व प्रकृति ने जो नया प्रयोग किया कि संघर्षमय संसार में शायद शक्तिशाली जीव अधिक टिकेगा, इसलिए विशालकाय दॉंत-नख तथा जिरहबख्तरयुक्त दानवासुर बनाए। वे भी नष्ट हो गए।

तब चराचर सृष्टि में एक नया आयाम खुला। क्रांतिकारी परिवर्तन करने वाला एक अद्वितीय तत्‍व उत्‍पन्‍न हुआ। पक्षी और स्‍तनपायी में एक नए भाव का निर्माण हुआ। पक्षी घोंसला बनाते हैं। अंडों को सेते समय उनकी रक्षा करते हैं। बच्‍चा पैदा होने पर कितना असहाय होता है। और मनुष्‍य का बच्‍चा तो सबसे बड़े कालखंड के लिए निर्बल रहता है। मां-बाप उसे खाना देते हैं, जीना सिखाते हैं। कितनी चिंता करके बच्‍चे का पालते हैं। पक्षी ने दाना छोड़ तिनका उठाया-घोंसला बनाने के लिए। घूमना छोड़ अंडा सेया, स्‍वयं न खाकर बच्‍चे को दिया, यह समझकर कि बच्‍चा वह स्‍वयं है। यह बच्‍चे से अभिन्‍नता का भाव स्‍नेह, ममता और उससे जनित अपूर्व त्‍याग सिखाता है।

स्‍नेह, इससे अनेक गुण उत्‍पन्‍न होते हैं। शिक्षा की प्रथम कड़ी इसी से जुड़ती है। पालतू तोता, मैना मनुष्‍य की वाणी की नकल करना तभी सीखते हैं जब वे उससे प्रेम करने लगते हैं। पालतू कुत्‍ता भी घर के बच्‍चों को अपने गोल का समझता है। ‘जन्‍म से स्‍वतंत्र’ (born free) ऐसी शेरनी की पालनकर्ता मनुष्‍य के प्रति स्‍नेह की कहानी है। शिशुक (सूँस: dolphin) के द्वारा मनुष्‍य को सागर से किनारे फेंककर उसकी जान बचाने की अनेक कथाऍं हैं। ऐसा है स्‍तनपायी जीव का नैसर्गिक स्‍नेह, जो सागर को लाट गया। शायद इसे देखकर ही जलपरी (mermaid) की कहानियॉं हैं। कैसे मनुष्‍य के साथ खेलतीं, संगीत सुसनती हैं। मॉं की ममता से कुटुंब बना। स्‍नेह करने से सुख होता है, इससे सामाजिकता आई। गोल या दल बना। यह समाज- निर्माण की प्रक्रिया है। केवल सुरक्षा के लिए समाज नहीं बनता, सामाजिकता के भाव के कारण समाज जुड़े।

ये मछलियॉं, उभयचर तथा सरीसूप अनुभवों से सीखते हैं। उनकी कम-अधिक स्‍मृति भी रहती है। ऊपरी तौर पर उनके अनुभव प्राणी तक ही सीमित रहते हैं और उनकी म़त्‍यु पर खो जाते हैं। पर पक्षी एवं स्‍तनपायी अपने अनुभव कुछ सीमा तक अगली पीढ़ी को दे जाते हैं। ये पीढ़ी-दर-पीढ़ी संचित होते रहते हैं। इनके साथ भाव संलग्‍न हो जाते हैं।

इस विकास-क्रम के पीछे कोई प्रयोजन है क्‍या ? प्रकृति का कौन सा गूढ़ महोद्देश्‍य इसके पीछे है ? यहॉं दो मत हैं। हमने बर्नार्ड शॉ (Bernard Shaw) का नाटक ‘पुन: मेथुसला की ओर’ (Back to Methuselah) और उसकी भूमिका पढ़ी होगी। कैसे एक जीवन शक्ति (élan vital) विकास-क्रम को आगे बढ़ाती है। एक पुरातत्‍वज्ञ एरिक वान दानिकन की पुस्‍तक ‘देवताओं के रथ’ (Erich von Daniken: Chariots of he Gods? Unsolved Mysteries of the Past) का प्रश्‍न है, क्‍या अंतरिक्ष के किसी दूसरे ग्रह के प्रबुद्ध जीव या देवताओं ने इस विकास-धारा को दिशा दी? इस पुस्‍तक में महाभारत की कुंती की कथा का उल्‍लेख है, जब उसने देवताओं का आह्वान कर तेजस्‍वी पुत्र मॉंगे।

जिस प्रकार बच्‍चे के अंग-प्रत्‍यंग उसके माता-पिता तथा उनके पीढियों पुराने पूर्वजों पर निर्भर करते हैं उसी प्रकार वह उनके मनोभावों से प्रभावित संभावनाओं (potentialities) को लेकर पैदा होता है। कर्मवाद का आधार यही है कि हमारा आचरण आने वाले वंशानुवंश को प्रभावित करता है। अत्‍यंत प्राचीन काल में भारतीय दर्शन में कर्मवाद के आधार पर जिस सोद्देश्‍य विकास की बात कही गई,उसके बारे में जीव विज्ञान अभी दुविधा में है। आज के वैज्ञानिक विकास को आकस्मिक एवं निष्‍प्रयोजन समझते हैं, मानों यह संयोगवश चल रहा हो। जैसे कोई एक अंध प्रेरणा अललटप्‍पू हर दिशा में दौड़ती हो और अवरोध आने पर उधर जाना बंद कर नई अनजानी जगह से किसी दूसरी दिशा मे फूट निकलती हो।